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________________ ज्ञान के पांच प्रकार] [५७ पुंज होता है। उत्पन्न होने के बाद फिर कभी वह नष्ट नहीं होता। यह ज्ञान सादि अनन्त है तथा सदा एक सरीखा रहने वाला है। केवलज्ञान मनुष्य भव में ही उत्पन्न होता है, अन्य किसी भव में नहीं। उसकी अवस्थिति सदेह और विदेह दोनों अवस्थाओं में पाई जाती है। इसीलिए सूत्रकार ने भवस्थ एवं सिद्धकेवलज्ञान दो प्रकार का बताया है। मनुष्य शरीर में अवस्थित तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती प्रभु के केवलज्ञान को भवस्थ केवलज्ञान कहते हैं तथा देहरहित मुक्तात्मा को सिद्ध कहते हैं। उनके ज्ञान को सिद्धकेवल कहा है। इस विषय में वृत्तिकार ने कहा है- . "तत्रेह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्योऽन्यत्र केवलोत्पादाभावात्, भवे तिष्ठन्ति इति भवस्थाः।" ___ भवस्थ केवलज्ञान भी दो प्रकार का बताया गया है। सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान। वीर्यात्मा अर्थात् आत्मिक शक्ति से आत्मप्रदेशों में स्पन्दन होने से मन, वचन और काय में जो व्यापार होता है उसी को योग कहते हैं। वह योग पहले गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। चौदहवें गुणस्थान में योगनिरुन्धन होने पर जीव अयोगी कहलाता है। आध्यात्मिक उत्कर्ष के चौदह स्थान या श्रेणियाँ हैं. जिन्हें गणस्थान कहते हैं। बारहवें गणस्थान गीतरागता उत्पन्न हो जाती है किन्तु केवलज्ञान नहीं हो पाता। केवलज्ञान तो तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश के पहले समय में ही उत्पन्न होता है। इसलिये उसे प्रथम समय का सयोगिभवस्थ केवलज्ञान कहते हैं। किन्तु जिसे तेरहवें गुणस्थान में रहते हुए एक से अधिक समय हो जाते हैं, उसे अप्रथम समय का सयोगिभवस्थ केवलज्ञान होता है। अथवा जो तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय पर पहुँच गया है, उसे चरम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान तथा जो तेरहवें गुणस्थान के चरम समय में नहीं पहुंचा उसके ज्ञान को अचरम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान कहा जाता है। अयोगिभवस्थ केवलज्ञान के भी दो भेद हैं—जिस केवलज्ञान-प्राप्त आत्मा को चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश किये हुए पहला समय ही हुआ है, उसके ज्ञान को प्रथम समय अयोगिभवस्थकेवलज्ञान कहते हैं और जिसे प्रवेश किये अनेक समय हो गये हैं, उसके ज्ञान को अप्रथम समय अयोगिभवस्थ-केवलज्ञान कहते हैं। अथवा जिसे सिद्ध होने में एक समय ही शेष रहा है उसके ज्ञान को चरमसमय-अयोगिभवस्थ केवलज्ञान तथा जिसे सिद्ध होने में एक से अधिक समय शेष हैं, ऐसे चौदहवें गुणस्थान के स्वामी के केवलज्ञान को अचरम-समय-अयोगिभवस्थ-केवलज्ञान कहते चौदहवें गुणस्थान की स्थिति, अ, इ, उ, ऋ और लु इन पाँच अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, मात्र इतनी ही है। इसे शैलेशी अवस्था भी कहते हैं। सिद्ध वे कहलाते हैं जो आठ कर्मों से सर्वथा विमुक्त हो गये हैं। वे संख्या में अनन्त हैं, किन्तु स्वरूप सबका सदृश है। उनका केवलज्ञान सिद्ध केवलज्ञान कहलाता है। सिद्ध शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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