________________
[ नन्दीसूत्र
५८ ]
"षिघु संराद्धौ, सिध्यति स्म इति सिद्धः, यो येन गुणेन परिनिष्ठितो, न पुनः साधनीयः स सिद्ध उच्यते, यथा सिद्ध ओदनः स च कर्मसिद्धादिभेदादनेकविधः, अथवा सितं - बद्धं ध्यातं भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्ध:,... सकलकर्मविनिर्मुक्तो मुक्तावस्थामुपगत इत्यर्थः।”
अर्थात् जिन आत्माओं ने आठों कर्मों को नष्ट कर दिया है और उनसे मुक्त हो गये हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं । यद्यपि सिद्ध अनेक प्रकार के हो सकते हैं, यथा— कर्मसिद्ध, शिल्पसिद्ध, विद्यासिद्ध, मंत्रसिद्ध, योगसिद्ध, आगमसिद्ध, अर्थसिद्ध, यात्रासिद्ध, तपःसिद्ध, कर्मक्षयसिद्ध आदि, किन्तु यहाँ कर्मक्षयसिद्ध का ही अधिकार है।
कर्मक्षयजन्य गुण कभी लुप्त नहीं होते। वे आत्मा की तरह अविनाशी, सहभावी, अरूपी और अमूर्त होते हैं । अतः सिद्धों में इनका होना और सदैव रहना अनिवार्य है ।
सिद्धकेवलज्ञान
४०—से किं तं सिद्धकेवलनाणं ?
सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा अणंतरसिद्ध केवलनाणं च, परंपरसिद्धकेवलनाणं च ।
४०—प्रश्न—सिद्ध केवलज्ञान कितने प्रकार का है?
उत्तर—वह दो प्रकार का है, यथा— (१) अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान और (२) परम्परसिद्ध
केवलज्ञान।
विवेचन—जैनदर्शन के अनुसार तैजस और कार्मण शरीर से आत्मा का सर्वथा मुक्त या पृथक् हो जाना ही मोक्ष है । प्रस्तुत सूत्र में सिद्धकेवलज्ञान के दो भेद किये गये हैं—
( १ ) अनन्तरसिद्ध - केवलज्ञान — जिन्हें सिद्ध हुए एक समय ही हुआ हो उन्हें अनन्तरसिद्धकहते हैं। उनका ज्ञान अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान है ।
(२) परम्परसिद्ध-केवलज्ञान — जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो गये हों उन परम्परसिद्ध केवलज्ञानियों का केवलज्ञान ।
वृत्तिकार ने निम्न आठ द्वारों के आधार पर सिद्ध स्वरूप का वर्णन किया है। वे हैं— (१) सत्पदप्ररूपणा, (२) द्रव्यप्रमाणद्वार, (३) क्षेत्रद्वार, (४) स्पर्शनाद्वार, (५) कालद्वार, (६) अन्तरद्वार, (७) भावद्वार, (८) अल्पबहुत्वद्वार ।
इन आठों द्वारों पर भी पन्द्रह - पन्द्रह उपद्वार घटाये गये हैं । ये क्रमशः इस प्रकार हैं
1
(१) क्षेत्र, (२) काल, (३) गति, (४) वेद, (५) तीर्थ, (६) लिङ्ग, (७) चारित्र, (८) बुद्ध, (९) ज्ञान, (१०) अवगाहना, (११) उत्कृष्ट, (१२) अन्तर, (१३) अनुसमय, (१४) संख्या, (१५) अल्पबहुत्व |