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________________ श्रोताओं के विविध प्रकार] [२१ । दिखाई देते हैं ! मानो मरकत मणि के पात्र में मोतियों की कतार हो।' देव श्रीकृष्ण की इस अद्भुत गुणग्राहकता को जानकर नतमस्तक हो गया। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ द्वारका नगरी के बाहर उद्यान में पहुंचे। कुछ समय पश्चात् वही देव फिर परीक्षा लेने आ गया और अश्वशाला में से श्रीकृष्ण के एक उत्तम अश्व को लेकर भाग गया। सैनिकों के पीछा करने पर भी वह हाथ नहीं आया। अन्त में श्रीकृष्ण स्वयं घोड़ा छुड़ाने के लिए गये। तब अपहरणकर्ता देवता ने कहा-'आप मेरे साथ युद्ध करके अश्व ले जा सकते हैं।' श्रीकृष्ण ने कहा—'युद्ध कई प्रकार के होते हैं, मल्लयुद्ध, मुष्ठियुद्ध, दृष्टियुद्ध आदि। तुम कौन-सा युद्ध करना चाहते हो?' उसने कहा—'मैं पीठयुद्ध करना चाहता हूं। आपकी भी पीठ हो और मेरी भी पीठ हो।' उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा—'ऐसा घृणित व नीच युद्ध करना मेरे गौरव के विरुद्ध है, भले तू अश्व ले जा।' यह सुनकर देव हर्षान्वित होकर अपने असली रूप में वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर, श्रीकृष्ण के चरणों में नतमस्तक हो गया। उसने इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा को स्वीकार किया। वरदानस्वरूप देव ने एक दिव्य भेरी भेंट में दी। उसने कहा—इसे छह-छह महीने बाद बजाने से इसमें से सजल मेघ जैसी ध्वनि उत्पन्न होगी। जो भी इसकी ध्वनि को सुनेगा उसे छह महीने तक रोग नहीं होगा। उसका पूर्वोत्पन्न रोग नष्ट हो जायेगा। इसकी ध्वनि बारह योजन तक सुनाई देगी। यह कहकर देव स्वस्थान को चला गया। कुछ समय पश्चात् ही द्वारका में रोग फैला और भेरी बजाई गई। जहां तक उसकी आवाज पहंची वहां तक के सभी रोगी स्वस्थ हो गए। श्रीकष्ण ने भेरी अपने विश्वासपात्र सेवक को सौंप दी, सारी विधि समझा दी। एक बार एक धनाढ्य गंभीर रोग से पीडित होकर और कृष्णजी की भेरी की महिमा सुनकर द्वारका आया। दुर्भाग्य से उसके द्वारका पहुंचने से एक दिन पूर्व ही भेरीवादन हो चुका था। वह सोच-विचार में पड़ गया-भेरी छह महीने बाद बजेगी और तब तक मेरे प्राणपखेरू उड़ जायेंगे। सोचते-सोचते अचानक उसे सूझा 'यदि भेरी की ध्वनि सुनने से रोग नष्ट हो सकता है तो उसके एक टुकड़े को घिस कर पीने से भी रोग नष्ट हो सकता है।' आखिर उसने भेरीवादक को रिश्वत देकर एक टुकड़ा प्राप्त कर लिया। उसे घिस कर पीने से वह नीरोग हो गया। मगर भेरीवादक को रिश्वत लेने का चस्का लग गया। दूसरों को भी वह भेरी काट-काट कर टुकड़े देने लगा। काटे हुए टुकड़ों के स्थान पर वह दूसरे टुकड़े जोड़ देता था। परिणाम यह हुआ कि वह दिव्य भेरी गरीब की गुदड़ी बन गई। उसका रोगशमन का सामर्थ्य भी नष्ट हो गया। बारह योजन तक सम्पूर्ण द्वारका में उसकी ध्वनि भी सुनाई न देती। श्रीकृष्ण को जब सारा रहस्य ज्ञात हुआ तो कृष्णजी ने भेरीवादक को दण्डित किया तथा जनहित की दृष्टि से तेला करके पुनः देव से भेरी प्राप्त की और विश्वस्त सेवक को दी। यथाज्ञा छह महीने बाद ही भेरी के बजने से जनता लाभान्वित होने लगी।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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