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[नन्दीसूत्र ___ इस दृष्टान्त का भावार्थ इस प्रकार है—आर्य क्षेत्र रूप द्वारका नगरी है, तीर्थंकर रूप कृष्ण वासुदेव हैं, पुण्य रूप देव है। भेरी तुल्य जिनवाणी है। भेरीवादक के रूप में साधु और कर्म रूप रोग है।
इसी प्रकार जो श्रोता या शिष्य आचार्य द्वारा प्रदत्त सूत्रार्थ को छिपाते हैं या उसे बदलते हैं, मिथ्या प्ररूपणा करते हैं, वे अनन्त संसारी होते हैं। किन्तु जो जिन-वचनानुसार आचरण करते हैं, वे मोक्ष के अनन्त सुखों के अधिकारी होते हैं। जैसे श्रीकृष्ण का विश्वासी सेवक पारितोषिक पाता है और दूसरा निकाला जाता है।
(१४) अहीर-दम्पती—एक अहीरदम्पती बैलगाड़ी में घृत के घड़े भरकर शहर में बेचने के लिए घीमण्डी में आया। वह गाड़ी से घड़े उतारने लगा और अहीरनी नीचे खड़ी होकर लेने लगी। दोनों में से किसी की असावधानी के कारण घड़ा हाथ से छूट गया और घी जमीन में मिट्टी से लिप्त हो गया। इस पर दोनों झगड़ने लगे। वाद-विवाद बढ़ता गया। बहुत सारा घी अग्राह्य हो गया, कुछ जानवर चट कर गये। जो कुछ बचा उसे बेचने में काफी विलंब हो गया। अतः सायंकाल वे दुःखी और परेशान होकर घर लौटे। किन्तु मार्ग में चोरों ने लूट लिया, मुश्किल से जान बचा कर घर पहुंचे।
इसके विपरीत दूसरा अहीरदम्पती घृत के घड़े गाड़ी में भरकर शहर में बेचने हेतु आया। असावधानी से घड़ा हाथ से.छूट गया, किन्तु दोनों अपनी-अपनी असावधानी स्वीकार कर, गिरे हुए घी को अविलम्ब समेटने लगे। घी बेच कर सूर्यास्त होने से पहले-पहले ही वे सकुशल घर पहुंचे गये।
उपर्युक्त दोनों उदाहरण अयोग्य और योग्य श्रोताओं पर घटित किये गये हैं। एक श्रोता आचार्य के कथन पर क्लेश करके श्रुतज्ञान रूप घृत को खो बैठता है, वह श्रुतज्ञान का अधिकारी नहीं हो सकता। दूसरा, आचार्य द्वारा ज्ञानदान प्राप्त करते समय भूल हो जाने पर अविलम्ब क्षमायाचना कर लेता है तथा उन्हें संतुष्ट करके पुनः सूत्रार्थ ग्रहण करता है। वही श्रुतज्ञान का अधिकारी कहलाता है।
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