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________________ | किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया था पाँच ज्ञान, चार निक्षेप, स्व-चतुष्टय एवं पर चतुष्टय षट् द्रव्य, सप्ततत्त्व, नव-पदार्थ एवं पंच अस्तिकाय इनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन महावीर ने नहीं किया। कर्म और आत्मा की जो मान्यता पार्श्वनाथ - युग में और उससे भी पूर्व जो ऋषभदेव युग और अरिष्टनेमि युग में थी उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन महावीर ने किया हो, अभी तक ऐसा उल्लेख नहीं मिलता है । गुणस्थान, लेश्या एवं ध्यान के स्वरूप में किसी प्रकार का भेद एवं अन्तर भगवान् महावीर ने नहीं डाला। यह सब प्रमेय विस्तार जैन - परम्परा में महावीर से पूर्व भी था। फिर प्रश्न होता है, महावीर ने जैन- परम्परा को अपनी क्या नयी देन दी ? इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि भगवान् महावीर ने नय और अनेकान्त दृष्टि, स्याद्वाद और सप्तभंगी जैनदर्शन को नयी देन दी है। महावीर से पूर्व के साहित्य में एवं परम्परा में अनेकान्त एवं स्याद्वाद के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता हो, यह प्रमाणित नहीं होता । महावीर के युग में स्वयं उनके ही अनुयायी अथवा उस युग का अन्य कोई व्यक्ति, जब महावीर से प्रश्न करता तब उसका उत्तर भगवान् महावीर अनेकान्त दृष्टि एवं स्याद्वाद की भाषा में ही दिया करते थे। भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने से पहले जिन दस महास्वप्नों का दर्शन हुआ था, उसका उल्लेख भगवती सूत्र में हुआ हैं | इन 1 स्वप्नों में से एक स्वप्न में महावीर ने एक बड़े चित्र-विचित्र पाँख वाले पुंस्कोकिल को स्वप्न में देखा था। उक्त स्वप्न का फल यह बताया गया था कि महावीर आगे चलकर चित्र-विचित्र सिद्धान्त ( स्वपर सिद्धान्त) को बताने वाले द्वादशांग का उपदेश करेंगे। बाद के दार्शनिकों ने चित्रज्ञान और चित्रपट को लेकर बौद्ध और न्याय वैशेषिक के सामने अनेकान्त को सिद्ध किया है। उसका मूल इसी में सिद्ध होता है। स्वप्न में दृष्ट पुंस्कोकिल की पाँखों को चित्र-विचित्र कहने का और आगमों को विचित्र विशेषण देने का विशेष अभिप्राय तो यही मालूम होता है कि उनका उपदेश एकरंगी न होकर अनेक रंगो था— अनेकान्तवाद था। अनेकान्त शब्द में सप्त नय का वर्णन अन्तर्भूत हो जाता है। दूसरी बात जो इस सम्बन्ध में कहनी है, वह यह है, कि जैन आगमों में विभज्यवाद का प्रयोग भी उपलब्ध होता है । सूत्रकृतांग सूत्र में भिक्षु कैसी भाषा का प्रयोग करे ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु को उत्तर देते समय विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए । विभज्यवाद का तात्पर्य ठीक समझने में जैन परम्परा के टीका-ग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ भी सहायक होते हैं। बौद्ध 'मज्झिमनिकाय' में शुभमाणवक के प्रश्न के उत्तर में भगवान् बुद्ध ने कहा है— हे माणवक । मैं विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं इसका अर्थ यह है कि जैन परम्परा के विभज्यवाद एवं अनेकान्त को बुद्ध ने भी स्वीकार किया था । विभज्यवाद वास्तव में किसी भी प्रश्न के उत्तर देने की अनेकान्तात्मक एक पद्धति एवं शैली ही है । विभज्यवाद और अनेकान्तवाद के विषय में इतना जान लेने के बाद ही स्याद्वाद की चर्चा उपस्थित होती है । स्याद्वाद का अर्थ है—कथन करने की एक विशिष्ट पद्धति। जब अनेकान्तात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का उल्लेख ही अभीष्ट हो तब अन्य धर्मों के संरक्षण के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग जब भाषा एवं शब्द में किया जाता है तब यह कथन स्याद्वाद कहलाता है। स्वाद्वाद और सप्तभंगी परस्पर उसी प्रकार संयुक्त हैं, जिस प्रकार नय और अनेकाना । सप्तभंगी में सप्तभंग (सप्त - विकल्प) होते हैं। जिज्ञासा सात प्रकार की हो सकती है। प्रश्न भी सात प्रकार के हो सकते हैं। अत: उसका उत्तर भी सात प्रकार से दिया जा सकता है। वास्तव में यही म्याद्राद है। जैन दर्शन की अपनी मौलिकता और नूतन उद्भावना अनेकान्त और स्याद्वाद में ही है द्रव्य के सम्बन्ध में जैन आगमों में अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार से वर्णन आया है। द्रव्य, (२२) गुण और
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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