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________________ 1 सम्बन्ध हे, जैन आगमों में स्थान-स्थान पर अनेकान्त दृष्टि, सप्तभंगी, नय, निक्षेप, द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य-क्षेत्र - काल एवं भाव, निश्चय और व्यवहार, निमित्त और उपादान, नियति और पुरुषार्थ, कर्म और उसका फल, आचार और योग आदि विषयों का बिखरा हुआ वर्णन आगमों में उपलब्ध होता है। अब रहा इसके विभाग का प्रश्न ! उसके सम्बन्ध में यहाँ पर संक्षेप में इतना ही कहना है, कि ज्ञान का और उसके भेद-प्रभेदों का व्यापक रूप से वर्णन आगमों में उपलब्ध है। ज्ञान के क्षेत्र का एक भी अंग और एक भी भेद इस प्रकार का नहीं है, जिसका वर्णन आगम और उसके व्याख्या साहित्य में पूर्णता के साथ नहीं हुआ हो । प्रमाण के सभी भेद और उपभेदों का वर्णन आगमों में उपलब्ध होता है जैसे कि प्रमाण और उसके प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भेद तथा अनुमान और उसके सभी अंग, उपमान और शब्द प्रमाण आदि के भेद भी मिलते हैं। नय के लिए आदेश एवं दृष्टि शब्द का प्रयोग भी अति प्राचीन आगमों में किया गया है। नय के द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद किये गये हैं। पर्यायार्थिक के स्थान पर प्रदेशार्थिक शब्द प्रयोग भी अनेक स्थानों पर आया है। सकंलादेश और विकलादेश के रूप में प्रमाण- सप्तभंगी एवं नय- सप्तभंगी का रूप भी आगम एवं व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव—इन चार निक्षेपों का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है। स्याद्वाद एवं अनेकान्त को सुन्दर ढंग से बतलाने के लिए पुंस्कोकिल के स्वप्न का कथन भी रूपक का काम करता है। जीव की नित्यता एवं अनित्यता पर विचार किया गया है। न्याय- शास्त्र में प्रसिद्ध वाद, वितण्डा और जल्प जैसे शब्दों का ही नहीं, उनके लक्षणों का विधान भी आगमों के व्याख्यात्मक साहित्य में प्राप्त होता है। इस प्रकार प्रमाण खण्ड में अथवा ज्ञान सम्बन्धी तत्वों का वर्णन आगमों में अनेक प्रसंगों में उपलब्ध होता है। जिसे पढ़कर यह जाना जा सकता है, कि आगम काल में जैन परम्परा की दार्शनिक दृष्टि क्या रही है । आगम काल में षद्रव्य और नव पदार्थों का वर्णन किस रूप में मिलता है और आगे चल कर इसका विकास और परिवर्तन किस रूप में होता है? निश्चय ही जैन परम्परा का आगमकालीन दर्शन वेदकालीन वेद-परम्परा के दर्शन से अधिक विकसित और अधिक व्यवस्थित प्रतीत होता है। वेदकालीन दर्शन में और आगमकालीन दर्शन में बड़ा भेद यह भी है कि यहाँ पर वेद की भाँति बहुदेववाद एवं प्रकृतिवाद कभी नहीं रहा। जैन दर्शन अपने प्रारम्भिक काल से ही अथवा अपने अत्यन्त प्राचीन काल से आध्यात्मिक एवं तात्त्विक दर्शन रहा है। - प्रमेय- विचार दर्शन - साहित्य में प्रमेय एवं ज्ञेय दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है । प्रमेय का अर्थ है— जो प्रमा का विषय हो ज्ञेय का अर्थ है जो ज्ञान का विषय हो। सम्यक्ज्ञान को ही प्रमा कहा जाता है ज्ञान विषयी होता है ज्ञान से जो जाना जाता है, उसको विषय अथवा ज्ञेय कहा जाता है। किसी भी ज्ञेय और किसी भी प्रमेय का ज्ञान जैन परम्परा में अनेकान्त दृष्टि से ही किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार जब किसी भी विषय पर किसी भी वस्तु पर अथवा किसी भी पदार्थ पर विचार किया जाता है तो अनेकान्त दृष्टि के द्वारा ही उस का सम्यक् निर्णय किया जा सकता है। प्राचीन तत्त्वव्यवस्था में, जो भगवान् महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ परम्परा से ही चली आ रही थी, महावीर युग में उसमें क्या नयापन आया, यह एक विचार का विषय है। जैन अनुश्रुति के अनुसार भगवान् महावीर ने किसी नये तत्त्वदर्शन का प्रचार नहीं किया, किन्तु उनसे २५० वर्ष पूर्व होने वाले तीर्थंकर परमयोगी पार्श्वनाथ सम्मत आचार में तो महावीर ने कुछ परिवर्तन किया है, जिसकी साक्षी आगम दे रहे हैं, किन्तु पार्श्वनाथ के तत्त्वज्ञान में उन्होंने ( २१ )
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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