SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्याय—जैन-आगम-परम्परा में इन तीनों का व्यापक और विशाल दृष्टि से वर्णन किया गया है। द्रव्य में गुण रहता है, और गुण का परिणमन ही पर्याय है। इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय विभक्त होकर भी अविभक्त हैं। मुख्य रूप से द्रव्य के दो भेद हैं— जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । अथवा अन्य प्रकार से दो भेद समझने चाहिए— रूपी द्रव्य और अरूपी द्रव्य । द्रव्यों की संख्या छह है— जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें से काल को छोड़कर शेष द्रव्यों के साथ जब अस्तिकाय लगा दिया जाता है, तब वह पंच- अस्तिकाय कहलाता है। अस्तिकाय शब्द का अर्थ है— प्रदेशों का समूह । काल के प्रदेश नहीं होते अतः इसके साथ अस्तिकाय शब्द नहीं जोड़ा गया। प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण एवं धर्म होते हैं और प्रत्येक गुण की अनन्त पर्याएँ होती हैं। पर्याय के दो भेद हैं—जीव पर्याय और अजीव पर्याय । निक्षेप के सम्बन्ध में आगमों में वर्णन आता है। निक्षेप का अर्थ है— न्यास निक्षेप के चार भेद हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव जैन सूत्रों की व्याख्याविधि का वर्णन अनुयोगद्वारसूत्र में आता है। यह विधि कितनी प्राचीन है ? इसके विषय में निश्चित कुछ नहीं कहा जा सकता। परन्तु अनुयोगद्वारसूत्र के अध्ययन करने वाले व्यक्ति को इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है, कि व्याख्याविधि का अनुयोगद्वारसूत्र में जो वर्णन उपलब्ध है, वह पर्याप्त प्राचीन होना चाहिए। अनुयोग या व्याख्या के द्वारों के वर्णन में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों का वर्णन आता है । अनुयोगद्वारसूत्र में तो निक्षेपों के विषय में पर्याप्त विवेचन है, किन्तु यह गणधरकृत नहीं समझा जाता । गणधरकृत अंगों में से स्थानांग सूत्र में 'सर्व' के जो प्रकार बताये हैं, वे सूचित करते हैं, कि निक्षेपों का उपदेश स्वयं भगवान् महावीर ने दिया होगा। शब्द व्यवहार तो हम करते ही हैं, क्योकि इसके बिना हमारा काम चलता नहीं। पर कभीकभी यह हो जाता है कि शब्दों के ठीक अर्थ को — वक्ता के विवक्षित अर्थ को न समझने से बड़ा अनर्थ हो जाता है। इस अनर्थ का निवारण निक्षेप के द्वारा भगवान् महावीर ने किया है। निक्षेप का अर्थ है— अर्थ-निरूपण-पद्धति । भगवान् महावीर ने शब्दों के प्रयोग को चार प्रकार के अर्थों में विभक्त कर दिया है— नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । यह निक्षेप पद्धति प्राचीन से प्राचीन आगमों में उपलब्ध होती है और नूतन युग के न्याय ग्रन्थों में भी उत्तरकाल के आचार्यों ने इसका उल्लेख ही नहीं, नूतन पद्धति से निरूपण भी किया है । उपाध्याय यशोविजयजी ने स्वरचित " जैनतर्कभाषा" में प्रमाण एवं नय निरूपण के साथ-साथ निक्षेप का निरूपण भी किया है। आगमों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का भी अनेक स्थानों पर वर्णन मिलता है। इन चारों को दो प्रकार से कहा गया है— स्वचतुष्टय स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव तथा पर चतुष्टय पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर- भाव। एक ही वस्तु के विषय में जो नाना मतों की सृष्टि होती है, उसमें द्रष्टा की रुचि और शक्ति, दर्शन का साधन, दृश्य की दैशिक और कालिक स्थिति, दृष्टा की दैशिक और कालिक स्थिति, दृश्य का स्थूल और सूक्ष्म रूप आदि अनेक कारण हैं। यही कारण है कि प्रत्येक दृष्टा और दृश्य और प्रत्येक क्षण में विशेष - विशेष होकर, नाना मतों के सर्जन में निमित्त बनते हैं उन कारणों की गणना करना कठिन है। अतएव तत्कृत विशेषों की परिगणना भी असंभव है। इसी कारण से वस्तुतः सूक्ष्म विशेषताओं के कारण से होने वाले नाना मतों का परिगणन भी असंभव है। इस असंभव को ध्यान में खकर ही भगवान् महावीर ने सभी प्रकार की अपेक्षाओं का साधारणीकरण करने का प्रयत्न किया है और मध्यम मार्ग से सभी प्रकार की अपेक्षाओं का वर्गीकरण चार प्रकार से किया है। ये चार प्रकार (२३)
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy