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________________ श्रुतज्ञान ] हैं। शेष वर्णन पूर्ववत् है । (१०) श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र [१९९ १२ – से किं तं पण्हावागरणाई ? पण्हावागरणेसु णं अट्ठत्तरं पसिण-सयं, अट्ठतरं अपसिण-सयं, अट्ठत्तरं परिणापसिण-सयं, तं जहा —– अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अन्नेवि विचित्ता विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्वा संवाया आघविज्जंति । पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ। सेणं अंगट्टयाए दसमे अंगे, एगे सुअक्खंधे, पणयालीसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साइं पयग्गेणं, संखेज्जा अनंता थावरा, सासय-कड - निबद्धनिकाइआ, जिण - पन्नत्ता भावा आघविज्जंति पन्नविज्जंति, परूविज्जंति दंसिज्जंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जति । अक्खरा, अणंता गमा, अनंता पज्जवा, परित्ता तसा, से एवं आया, एवं नाया, एवं विन्नाया एवं चरण-करणपरूवणा आघविज्जइ । से त्तं पण्हावागरणाई । ॥ सूत्र ५५ ॥ ९२ - प्रश्नव्याकरण किस प्रकार है—उसमें क्या प्रतिपादन किया गया है ? उत्तर—प्रश्नव्याकरण सूत्र में एक सौ आठ प्रश्न ऐसे हैं जो विद्या या मंत्र विधि से जाप द्वारा सिद्ध किए गये हों और पूछने पर शुभाशुभ कहें। एक सौ आठ अप्रश्न हैं, अर्थात् बिना पूछे ही शुभाशुभ बताएँ और एक सौ आठ प्रश्नाप्रश्न हैं जो पूछे जाने पर और न पूछे जाने पर भी स्वयं शुभाशुभ का कथन करें। जैसे—– अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न तथा आदर्शप्रश्न, इनके अतिरिक्त अन्य भी विचित्र विद्यातिशय कथन किये गए हैं। नागकुमारों और सुपर्णकुमारों के साथ हुए मुनियों के दिव्य संवाद भी कहे गए हैं 1 प्रश्नव्याकरण की परिमित वाचनाएँ हैं । संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात संग्रहणियाँ तथा प्रतिपत्तियाँ हैं । प्रश्नव्याकरणश्रुत अंगों में दसवां अंग हैं। इसमें एक श्रुतस्कंध, पैंतालीस अध्ययन, पैंतालीस उद्देशनकाल और पैंतालीस समुद्देशनकाल हैं । पद परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं। संख्यात अक्षर, अनन्त अर्थगम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं । शाश्वत - कृत - निबद्ध -निकाचित, जिन प्रतिपादित भाव कहे गये हैं, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन तथा उपदर्शन द्वारा स्पष्ट किए गए हैं। प्रश्नव्याकरण का पाठक तदात्मकरूप एवं ज्ञाता, विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार उक्त अंग चरण-करण की प्ररूपणा की गई है।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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