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________________ १९८] [ नन्दीसूत्र नगर, उद्यान, व्यन्तरायत, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इस लोक और परलोक सम्बन्धी ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, दीक्षा, संयमपर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधानतप, प्रतिमाग्रहण, उपसर्ग, अन्तिम संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन तथा मृत्यु के पश्चात् अनुत्तर सर्वोत्तम विजय आदि विमानों में उत्पत्ति । पुनः वहाँ से च्यवकर सुकुल की प्राप्ति, फिर बोधिलाभ और अन्तक्रिया इत्यादि का वर्णन है । अनुत्तरौपपातिकदशा में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं । यह सूत्र अंग की अपेक्षा से नवमा अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देशनकाल 1. और तीन समुद्देशनकाल हैं। पदाग्र परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं। संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावरों का वर्णन है। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन भगवान द्वारा प्रणीत भाव कहे गए हैं। प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से सुस्पष्ट किए गए हैं। अनुत्तरौपपातिकदशा सूत्र का सम्यक् रूपेण अध्ययन करने वाला तद्रूप आत्मा ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है । इस प्रकार चरण-करण की प्ररूपणा उक्त अंग में की गई है। यह इस अङ्ग का विषय है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में अनुत्तरौपपातिक अंग का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। अनुत्तर का अर्थ है— अनुपम या सर्वोत्तम । बाईसवें, तेईसवें, चौबीसवें, पच्चीसवें तथा छब्बीसवें देवलोकों में जो विमान हैं वे अनुत्तर विमान कहलाते हैं । उन विमानों में उत्पन्न होने वाले देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं । इस सूत्र में तीन वर्ग हैं। पहले वर्ग में दस, दूसरे में तेरह और तीसरे में भी दस अध्ययन हैं। प्रथम और अन्तिम वर्ग में दस-दस अध्ययन होने से सूत्र को अनुत्तरौपपातिकदशा कहते हैं । इसमें उन तेतीस महान् आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने अपनी तपः साधना से समाधिपूर्वक काल करके अनुत्तर विमानों में देवताओं के रूप में जन्म लिया और वहाँ की स्थिति पूरी करने के बाद एक बार ही मनुष्य गति में आकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। तेतीस में से तेईस तो राजा श्रेणिक की चेलना, नन्दा और धारिणी रानियों के आत्मज थे और शेष दस में से एक धन्ना (धन्य) मुनि का भी वर्णन है। पन्ना मुनि की कठोर तपस्या और उसके कारण उनके अंगों की क्षीणता का बड़ा ही मार्मिक और विस्तृत वर्णन है। साधक के आत्मविकास के लिए भी अनेक प्रेरणात्मक क्रियाओं का निर्देश किया गया है। जैसे श्रुतपरिग्रह, तपश्चर्या, प्रतिमावहन, उपसर्गसहन, संलेखना आदि । उक्त सभी आत्म-कल्याण के अमोघ साधन हैं । इन्हें अपनाए बिना मुनि-जीवन निष्फल हो जाता है । सिद्धत्व को प्राप्त करने वाले महापुरुषों के उदाहरण प्रत्येक प्राणी का पथ-प्रदर्शन करते
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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