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श्रुतज्ञान]
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उपासकदशा की परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ (छन्द विशेष) संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं।
वह अंग की अपेक्षा से सातवाँ अंग हैं। उसमें एक श्रुतस्कंध, दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल और दस समुद्देशनकाल हैं। पद- परिमाण से संख्यात-सहस्र पद हैं। संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्रतिपादित भावों का सामान्य और विशेष रूप से कथन, प्ररूपण, प्रदर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है।
इसका सम्यक्पे ण अध्ययन करने वाला तद्प-आत्म-ज्ञाता और विज्ञाता बन जाता है। उपासकदशांग में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है।
यह उपासकदशा श्रुत का विषय है।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में उपासकों की चर्या का वर्णन है, इसलिये इसका नाम 'उपासकदशा' दिया गया है। श्रमण भगवान् महावीर के दस विशिष्ट श्रावकों का इसमें वर्णन है, इसलिए भी यह उपासकदशाङ्ग कहलाता है। श्रमणों की, यानी साधुओं की सेवा करने वाले श्रमणोपासक कहे जाते हैं। सूत्र में दस अध्ययन हैं तथा प्रत्येक अध्ययन में एक-एक श्रावक के लौकिक और लोकोत्तर वैभव का वर्णन है। इसमें उपासकों के अणुव्रत और शिक्षाव्रतों का स्वरूप भी बताया गया है।
प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि भगवान् महावीर के तो एक लाख और उनसठ हजार, बारह व्रतधारी श्रावक थे। फिर केवल दस श्रावकों का ही वर्णन क्यों किया गया? प्रश्न उचित और विचारणीय है। इसका उत्तर यह है कि सूत्रकारों ने जिन श्रावकों के लौकिक और लोकोत्तरिक जीवन में समानता देखी, उनका ही उल्लेख इसमें किया गया है। जैसे उपासकदशाङ्ग में वर्णित दसों श्रावक
यधीश थे. राजा और प्रजा के प्रिय थे। सभी के पास पाँचसौ हल की जमीन और गोजाति के अलावा कोई भी अन्य पशु नहीं थे। उनके व्यापार में जितने करोड़ द्रव्य लगा हुआ था, उतने ही गायों के वज्र थे। दसों श्रावकों ने महावीर भगवान् के प्रथम उपदेश से ही प्रभावित होकर बारह व्रत धारण किए थे तथा पन्द्रहवें वर्ष में गृहस्थ के व्यापारों से अलग होकर पौषधशाला में रहकर धर्माराधना प्रारम्भ कर दी थी। यहाँ पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि उनकी आयु लौकिक व्यवहार में व्यतीत हुई, उसकी गणना नहीं की गई है अपितु जबसे उन्होंने बारह व्रत धारण किए, तभी से आयु का उल्लेख किया गया है। सूत्र में वर्णित सभी श्रावकों ने एक-एक महीने का संथारा किया, सभी प्रथम देवलोक में देव हुए तथा चार पल्योपम की स्थिति प्राप्त की और आगे महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध-पद प्राप्त करेंगे।
इस प्रकार लगभग सभी दृष्टियों से उनका जीवन समान था और इसीलिए उन्हीं दस का उपासकदशांग में वर्णन किया गया है। अन्य उपासकों में इतनी समानता न होने से सम्भवतः उनका उल्लेख नहीं है। सूत्र का शेष परिचय भावार्थ में दिया जा चुका है।