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श्रुतज्ञान]
[१८९ (६) छठे स्थान में छह काय, छह लेश्याएँ, गणी के छह गुण, षड्द्रव्य तथा छह आरे आदि के विषय में निरूपण है।
(७) सातवें स्थान में सर्वज्ञ के और अल्पज्ञों के सात-सात लक्षण, सप्त स्वरों के लक्षण, सात प्रकार का विभंग ज्ञान, आदि अनेकों पदार्थों का वर्णन है।
(८) आठवें स्थान में आठ विभक्तियों का विवरण, आठ अवश्य पालनीय शिक्षाएँ तथा अष्ट संख्यक और भी अनेकों शिक्षाओं के साथ एकलविहारी के अनिवार्य आठ गुणों का वर्णन
(९) नवें स्थान में ब्रह्मचर्य की नव बाड़ें तथा भगवान् महावीर के शासन में जिन नौ व्यक्तियों ने तीर्थंकर नाम गोत्र बाँधा है और अनागत काल की उत्सर्पिणी में तीर्थंकर बनने वाले हैं, उनके विषय में बताया गया है। इनके अतिरिक्त नौ-नौ संख्यक और भी अनेक हेय, ज्ञेय एवं उपादेय शिक्षाएँ वर्णित हैं।
(१०) दसवें स्थान में दस चित्तसमाधि, दस स्वप्नों का फल, दस प्रकार का सत्य, दस प्रकार का ही असत्य; दस प्रकार की मिश्र भाषा, दस प्रकार का श्रमणधर्म तथा वे दस स्थान जिन्हें अल्पज्ञ नहीं जानते हैं, आदि दस संख्यक अनेकों विषयों का वर्णन किया गया है।
इस प्रकार इस सूत्र में नाना प्रकार के विषयों का संग्रह है। दूसरे शब्दों में इसे भिन्न-भिन्न विषयों का कोष भी कहा जा सकता है। जिज्ञासु पाठकों के लिये यह अङ्ग अवश्यमेव पठनीय
(४) श्री समवायाङ्गसूत्र ८६-से किं तं समवाए ?
समवाए णं जीवा समासिज्जंति, अजीवा समासिज्जंति, जीवाजीवा समासिज्जंति, ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमय-परसमए समासिज्जइ, लोए समासिज्जइ, अलोए समासिज्जइ, लोआलोए समासिजइ।।
समवाए णं इगाइआणं एगुत्तरिआण ठाण-सय-विबडिआणं भावाणं परूवणा आघविजइ, दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ।
___ समवायस्स णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखिज्जाओ निजुत्तीओ, संखिन्जाओ पडिवत्तीओ।
से णं अंगठ्ठयाए चउत्थे अंगे, एगे सुअक्खंधे, एगे अज्झयणे, एगे उद्देसणकाले, एगे समुद्देसणकाले, एगे चोआलसयसहस्से पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविनंति, पन्नविजंति, परूविजंति दंसिजंति, निदंसिन्जंति, उवदंसिन्जंति।