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[नन्दीसूत्र परसमय-जैनेतर सिद्धान्तों की स्थापना की जाती है एवं जैन व जैनेतर, उभय पक्षों की स्थापना की जाती है। लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की जाती है।
स्थान में या स्थानाङ्ग के द्वारा टङ्क छिन्नतट पर्वत, कूट, पर्वत, शिखर वाले पर्वत, कूट के ऊपर कुब्जाग्र की भांति अथवा पर्वत के ऊपर हस्तिकुम्भ की आकृति सदृश्य कुब्ज, गङ्गाकुण्ड आदि कुण्ड, पौण्डरीक आदि हृद-तालाब, गङ्गा आदि नदियों का कथन किया जाता है। स्थानाङ्ग में एक से लेकर दस तक वृद्धि करते हुए भावों की प्ररूपणा की गई है।
__ स्थानांग सूत्र में परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं।
वह अङ्गार्थ से तृतीय अङ्ग है। इसमें एक श्रुतस्कंध और दस अध्ययन हैं तथा इक्कीस उद्देशनकाल और इक्कीस ही समुद्देशनकाल हैं। पदों की संख्या बहत्तर हजार है। संख्यात अक्षर तथा अनन्त गम हैं। अनन्त पर्याय, परिमित-त्रस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-कृत-निबद्धनिकाचित जिनकथित भाव कहे जाते हैं। उनका प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है।
स्थानाङ्ग का अध्ययन करने वाला तदात्मरूप, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार उक्त अङ्ग में चरण-करणानुयोग की प्ररूपणा की गई है।
यह स्थानाङ्गसूत्र का वर्णन है।
विवेचन—इस सूत्र में एक से लेकर दस स्थानों के द्वारा जीवादि पदार्थ व्यवस्थापित किए गए हैं। संक्षेप में, जीवादि पदार्थों का वर्णन किया गया है। यह अंग दस अध्ययनों में बँटा हुआ है। सूत्रों की संख्या हजार से अधिक हैं। इसमें इक्कीस उद्देशक हैं। इस अंग की रचना पूर्वोक्त दो अङ्गों से भिन्न प्रकार की है। इसके प्रत्येक अध्ययन में, जो 'स्थान' नाम से कहे गए हैं, अध्ययन (स्थान) की संख्या के अनुसार ही वस्तु संख्या बताई गई है। यथा
(१) प्रथम अध्ययन में 'एगे आया' आत्मा एक है, इसी प्रकार अन्य एक-एक प्रकार के पदार्थों का वर्णन किया गया है।
(२) दूसरे अध्ययन में दो-दो पदार्थों का वर्णन है। यथा—जीव और अजीव, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म आदि।
(३) तीसरे अध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र का निरूपण है। तीन प्रकार के पुरुष उत्तम, मध्यम और जघन्य तथा श्रुतधर्म, चारित्र और अस्तिकायधर्म, इस प्रकार तीन प्रकार के धर्म आदि बताए गये हैं।
(४) चौथे अध्ययन में चातुर्मास धर्म आदि तथा सात सौ चतुर्भङ्गियों का वर्णन है। (५) पाँचवें में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच गति तथा पाँच इन्द्रिय इत्यादि का वर्णन
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