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श्रुतज्ञान]
[१८७ सूत्र में मुनियों को भिक्षाचरी में सर्तकता, परीषह-उपसर्गों में सहनशीलता, नारकीय दुःख, महावीर स्तुति, उत्तम साधुओं के लक्षण, श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुक तथा निर्ग्रन्थ आदि शब्दों की परिभाषा युक्ति, दृष्टान्त और उदाहरणों के द्वारा समझाई गई है।
दूसरे श्रुतस्कंध में जीव एवं शरीर के एकत्व, ईश्वर-कर्तृत्व और नियतिवाद आदि मान्यताओं का युक्तिपूर्वक खण्डन किया गया है। पुण्डरीक के उदाहरण से अन्य मतों का युक्तिसंगत उल्लेख करते हुए स्वमत की स्थापना की गई है। तेरह क्रियाओं का प्रत्याख्यान, आहार आदि का विस्तृत वर्णन है। पाप-पुण्य का विवेक, आर्द्रककुमार के साथ गोशालक, शाक्यभिक्षु, तापसों में हुए वादविवाद, आर्द्रकुमार के जीवन से संबंधित विरक्तत्ता तथा सम्यक्त्व में दृढ़ता का रुचिकर वर्णन है। अंतिम अध्ययन में नालंदा में हुए गौतम स्वामी एवं उदकपेढालपुत्र का वार्तालाप और अन्त में पेढालपुत्र के पंचमहाव्रत स्वीकार करने का सुन्दर वृत्तान्त हैं।
सूत्रकृताङ्ग के अध्ययन से स्वमत-परमत का ज्ञान सरलता से हो जाता है। आत्म-साधना की वृद्धि तथा सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए यह अङ्ग अति उपयोगी है। इस पर भद्रबाहुकृत नियुक्ति, जिनदासमहत्तरकृत चूर्णि और शीलांकाचार्य की बृहद्वृत्ति भी उपलब्ध है।
(३) श्री स्थानाङ्गसूत्र ८५-से किं तं ठाणे ?
ठाणे णं जीवा ठाविजंति अजीवा ठाविजंति, जीवाजीवा ठाविजंति, ससमये ठाविज्जइ, पइसमये ठाविजइ, ससमय-परसमए ठाविज्जइ, लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविन्जइ, लोआलोए ठाविज्जइ।
___ठाणे णं टंका, कूडा, सेला, सिहरिणो, पब्भारा, कुंडाइं, गुहाओ, आगरा, दहा, नईओ, आघविन्जंति। ठाणे णं परित्ता वायणा, संखेजा अणुओगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ।
से णं अंगट्ठायाए तइए अंगे, एगे सुअक्खंधे, दस अज्झयणा, एगवीसं उद्देसणकाला, एक्कवीसं समुद्देसणकाला, बावत्तरिपयसहस्सा पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविन्जंति परूविजंति, दंसिज्जंति, निदंसिन्जंति, उवदंसिजंति।
से एवं आया, एवं नाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण-परूवणा आघविज्जइ। से त्तं ठाणे। ॥ सूत्र ४८॥ ८५—प्रश्न—भगवन् ! स्थानाङ्गश्रुत क्या है ?
उत्तर—स्थानांग में अथवा स्थानाङ्ग के द्वारा जीव स्थापित किये जाते हैं, अजीव स्थापित किये जाते हैं और जीवाजीव की स्थापना की जाती है। स्वसमय-जैन सिद्धांत की स्थापना की जाती है,