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[नन्दीसूत्र से ही जीव भविष्य में सुखी हो सकता है।
(६) समुच्छेदवादी समुच्छेदवाद अर्थात् क्षणिकवाद, इसे माननेवाले आत्मा आदि सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हैं। निरन्वय नाश इसकी मान्यता है।
(७) नित्यवादी नित्यवाद के पक्षपाती कहते हैं—प्रत्येक वस्तु एक ही स्वरूप में अवस्थित रहती है। उनके विचार से वस्तु में उत्पाद-व्यय नहीं होता तथा वस्तु परिणाम नहीं वरन् कूटस्थ नित्य है। जैसे असत् की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सत् का विनाश भी नहीं होता। प्रत्येक परमाणु सदा से जैसा चला आ रहा है, भविष्य में भी सर्वथा वैसा ही रहेगा। ऐसी मान्यता रखने वाले अन्य वादी भी इस भेद में समाविष्ट हो जाते हैं। इन्हें विवर्त्तक भी कहते हैं।
(८) न संति परलोकवादी—आत्मा ही नहीं तो परलोक कैसे होगा! आत्मा के न होने से पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ, कोई भी कर्म नहीं है, अतः परलोक मानना भी निरर्थक है। इसके अलावा शांति मोक्ष को कहते हैं। जो आत्मा को तो मानते हैं किन्तु कहते हैं कि आत्मा अल्पज्ञ है, वह कभी भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। अतः संसारी आत्मा कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। अथवा इस लोक में ही शांति या सुख है। इस प्रकार परलोक, पुनर्जन्म तथा मोक्ष के निषेधक जितने भी विचारक हैं, सबका समावेश उपर्युक्त वादियों में हो जाता है।
(३) अज्ञानवादी ये अज्ञान से ही लाभ मानते हैं। इनका कथन है कि जिस प्रकार अबोध बालक के किए हुए अपराधों को प्रत्येक बड़ा व्यक्ति क्षमा कर देता है, उसे कोई दण्ड नहीं देता, इसी प्रकार अज्ञान दशा में रहने से ईश्वर भी सभी अपराधों को क्षमा कर देता है। इससे विपरीत ज्ञान दशा में किये गए सम्पूर्ण अपराधों का फल भोगना निश्चित है, अत: अज्ञानी ही रहना चाहिए। ज्ञान से राग-द्वेष आदि की वृद्धि होती है।
(४) विनयवादी—इनका मत है कि प्रत्येक प्राणी, चाहे वह गुणहीन, शूद्र, चाण्डाल या अज्ञानी हो, अथवा पशु, पक्षी, साँप, बिच्छू या वृक्ष आदि हो, सभी वंदनीय हैं। इन सबकी विनयभाव से वंदना-प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसा करने पर ही जीव परम-पद को प्राप्त कर सकता
प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न दर्शनों का विस्तृत विवेचन किया है। क्रियावादियों के एक सौ अस्सी प्रकार हैं, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवाद के बत्तीस, इस प्रकार कुल तीन सौ त्रेसठ भेद होते हैं।
प्रस्तुत सूत्र के दो स्कंध हैं। पहले स्कंध में तेईस अध्ययन और तेतीस उद्देशक हैं। दूसरे श्रुतस्कंध में सात अध्ययन तथा सात ही उद्देशक हैं। पहला श्रुतस्कंध पद्ममय है केवल सोलहवें अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है। दूसरे श्रुतस्कंध में गद्य तथा पद्य दोनों हैं। गाथा और छंदों के अतिरिक्त अन्य छंदों का भी उपयोग किया गया है। इसमें वाचनाएँ संख्यात हैं तथा अनुयोगद्वार, प्रतिपत्ति, वेष्टक, श्लोक, नियुक्तियाँ और अक्षर, सभी संख्यात हैं। छत्तीस हजार पद हैं। परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जीवों का वर्णन है।