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श्रुतज्ञान ]
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(६) व्युत्सर्ग— आभ्यंतर और बाह्य उपधि का यथाशक्ति परित्याग करना। इससे ममता में कमी और समता में वृद्धि होती है ।
इस प्रकार छह बाह्य एवं छह आभ्यंतर तप मुमुक्षु को मोक्ष मार्ग पर अग्रसर करते हैं। (५) वीर्याचार – वीर्य शक्ति को कहते हैं। अपनी शक्ति अथवा बल को शुभ अनुष्ठानों में प्रवृत्त करना वीर्याचार कहलाता है। इसे तीन प्रकार से प्रयुक्त किया जाता है।
(१) प्रत्येक धार्मिक कृत्य में प्रमादरहित होकर यथाशक्य प्रयत्न करना ।
(२) ज्ञानाचार के आठ और दर्शनाचार के आठ भेद, पाँच समिति, तीन गुप्ति तथा तप के बारह भेदों को भलीभांति समझते हुए इन छत्तीसों प्रकार के शुभ अनुष्ठानों में यथासंभव अपनी शक्ति को प्रयुक्त करना ।
(३) अपनी इन्द्रियों की तथा मन की शक्ति को मोक्ष प्राप्ति के उपायों में सामर्थ्य के अनुसार अवश्य लगाना ।
आचाराङ्ग के अन्तर्वर्ती विषय
आचारश्रुत के पठन-पाठन और स्वाध्याय से अज्ञान का नाश होता है तथा तदनुसार क्रियानुष्ठान करने से आत्मा तद्रूप यानी ज्ञान-रूप हो जाता है। कर्मों की निर्जरा, कैवल्य - प्राप्ति तथा सर्वदा के लिए सम्पूर्ण दुःखों से आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सके, इसलिए उक्त सूत्र में चरण-करण आदि की प्ररूपणा की गई है । अर्थ इस प्रकार है—
चरण— पाँच महाव्रत, दस प्रकार का श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्त्य, नौ ब्रह्मचर्यगुति, रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप, चार कषाय- निग्रह, ये सब चरण कहलाते हैं। इन्हें 'चरणसत्तरि' भी कहते हैं ।
करण—–चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावनाएँ, बारह भिक्षुप्रतिमाएँ, पाँच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ तथा चार प्रकार का अभिग्रह, ये सत्तर भेद करण कहे जाते हैं। इन्हें "करणसत्तरि" भी कहा जाता है।
आचाराङ्ग के अन्तर्वर्ती कतिपय विषयों का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है
गोचर —— भिक्षा ग्रहण करने की शास्त्रोक्त विधि |
विनय — ज्ञानी व चारित्रवान् का सम्मान करना ।
शिक्षा — ग्रहण - शिक्षा तथा आसेवन - शिक्षा, इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं का पालन करना ।
भाषा — सत्य एवं व्यवहार भाषाएँ ही साधु-जीवन में बोली जानी चाहिए ।
अभाषा-असत्य और मिश्र भाषाएँ वर्जित हैं ।
यात्रा—संयम, तप, ध्यान, समाधि एवं स्वाध्याय में प्रवृत्ति करना ।