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________________ शरीर को पृथक् बतलाया है। कर्म और उसके फल की सत्ता स्थिर की है। जगत् उत्पत्ति के विषय में नाना वादों का निराकरण करके विश्व को किसी ईश्वर या अन्य किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया, वह तो अनादि-अनन्त है— इस सिद्धान्त की स्थापना की गई है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद का निराकरण करके विशुद्ध क्रियावाद की स्थापना की गई है। प्रज्ञापना में जीव के विविध भावों को लेकर विस्तार से विचार किया गया है । राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी केशीकुमार श्रमण ने राजा प्रदेशी के प्रश्नों के उत्तर में नास्तिकवाद का निराकरण करके आत्मा और तत्सम्बन्धी अनेक तथ्यों को दृष्टान्त एवं युक्तिपूर्वक समझाया है। भगवतीसूत्र के अनेक प्रश्नोत्तरों में नय, प्रमाण और निक्षेप आदि अनेक दार्शनिक विचार बिखरे पड़े हैं। नन्दीसूत्र जैन दृष्टि से ज्ञान के स्वरूप और भेदों का विश्लेषण करने वाली एक सुन्दर एवं सरल कृति है । स्थानांग और समवायांग की रचना बौद्ध परम्परा के अंगुतर - निकाय के ढंग की है। इन दोनों में भी आत्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय, प्रमाण एवं निक्षेप आदि विषयों की चर्चा की गई है। महावीर के शासन में होने वाले अन्यथावादी निह्नवों का उल्लेख स्थानांग में है। इस प्रकार के सात व्यक्ति बताये गये हैं, जिन्होंने कालक्रम से महावीर के सिद्धान्तों की भिन्न-भिन्न बातों को लेकर मतभेद प्रकट किया था। अनुयोगद्वार में शब्दार्थ करने की प्रक्रिया का वर्णन मुख्य है। किन्तु यथाप्रसंग उसमें प्रमाण, नय एवं निक्षेप पद्धति का अत्यन्त सुन्दर निरूपण हुआ है । आगम- प्रामाण्य में मतभेद आगम- प्रामाण्य के विषय में एकमत नहीं है। श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद, और आवश्यक, इस प्रकार ३२ आगमों को प्रमाणभूत स्वीकार करती है। शेष आगमों को नहीं। इनके अतिरिक्त निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं को भी सर्वाशंतः प्रमाणभूत स्वीकार नहीं करती। दिगम्बर परम्परा उक्त समस्त आगमों को अमान्य घोषित करती है। उसकी मान्यता के अनुसाद सभी आगम लुप्त हो चुके हैं। दिगम्बर-परम्परा का विश्वास है कि वीर - निर्वाण के बाद श्रुत का क्रम से ह्रास होता गया । यहाँ तक ह्रास हुआ कि वीर निर्वाण के ६८३ वर्ष के बाद कोई भी अंगधर अथवा पूर्वधर नहीं रहा। अंग और के अंशधर कुछ आचार्य अवश्य हुए हैं। अंग और पूर्व के अंश - ज्ञाता आचार्यों की परम्परा में होने वाले पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्यों ने 'षट्खण्डागम' की रचना - द्वितीय अग्रायणीय पूर्व के अंश के आधार पर की और आचार्य गुणधर ने पाँचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद के अंश के आधार पर 'कषायपाहुड़' की रचना की। भूतबलि आचार्य ने 'महाबन्ध' की रचना की। उक्त आगमों में निहित विषय मुख्य रूप से जीव और कर्म है। बाद में उक्त ग्रन्थों पर आचार्य वीरसेन ने धवला और जयधवला टीका रची। यह टोका भी उक्त परम्परा को मान्य । दिगम्बर परम्परा का सम्पूर्ण साहित्य आचार्यों द्वारा रचित है। आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रणीत ग्रन्थ——समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार एवं नियमसार आदि भी दिगम्बर- परम्परा में आगमवत् मान्य हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के ग्रन्थ 'गोम्मटसार, ' 'लब्धिसार' और 'द्रव्यसंग्रह' आदि भी उतने ही प्रमाणभूत और मान्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर आचार्य अमृतचन्द्र ने अत्यन्त प्रौढ़ एवं गम्भीर टीकाएँ लिखी हैं। इस प्रकार दिगम्बर आगम- साहित्य भले ही बहुत प्राचीन न हो, फिर भी परिमाण में वह विशाल है। उर्वर और सुन्दर है। आगमों का व्याख्या - साहित्य श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य ४५ आगमों पर व्याख्या - साहित्य बहुत व्यापक एवं विशाल है। जैन-दर्शन का ( १८ )
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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