SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रारम्भिक रूप ही इन व्याख्यात्मक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता, बल्कि दर्शन-तत्त्व के गम्भीर से गम्भीर विचार भी आगम साहित्य के इन व्याख्यात्मक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आगमों की व्याख्या एवं टीका दो भाषा में हुई है—प्राकृत और संस्कृत। प्राकृत टीका–नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि के नाम से उपलब्ध है। नियुक्ति और भाष्य पद्यमय हैं और चूर्णि गद्यमय है। उपलब्ध नियुक्तियों का अधिकांश भाग भद्रबाहु द्वितीय की रचना है। उनका समय विक्रम ५वीं या ६ठीं शताब्दी है। नियुक्तियों में भद्रबाहु ने अनेक स्थलों पर एवं अनेक प्रसंगों पर दार्शनिक तत्त्वों की चर्चाएँ बड़े सुन्दर ढंग से की हैं। विशेष कर बौद्धों और चार्वाकों के विषय में नियुक्ति में जहाँ कहीं भी अवसर मिला उन्होंने खण्डन के रूप में अवश्य लिखा है। आत्मा का अस्तित्व उन्होंने सिद्ध किया। ज्ञान का सूक्ष्म निरूपण तथा अहिंसा का तात्त्विक विवेचन किया है। शब्दों के अर्थ करने की पद्धति में तो वे निष्णात थे ही। प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में लिखकर भद्रबाहु ने जैन-दर्शन की भूमिका पक्की की है। किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्ण रूप देखना हो तो भाष्य देखना चाहिए। भाष्यकारों में प्रसिद्ध आचार्य संघदास गणि और आचार्य क्षमाश्रमण जिनभद्र हैं। इनका समय सातवीं शताब्दी है। जिनभद्र ने "विशेषावश्यक भाष्य" में आगमिक पदार्थों का तर्कसंगत विवेचन किया है। प्रमाण, नय, और निक्षेप की सम्पूर्ण चर्चा तो उन्होंने की ही है, इसके अतिरिक्त तत्त्वों का भी तात्त्विक रूप से एवं युक्तिसंगत विवेचन उन्होंने किया है। यह कहा जा सकता है कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नहीं है जिस पर आचार्य जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपनी समर्थ कलम न चलाई हो। 'बृहत्कल्प' भाष्य में आचार्य संघदास गणि ने साधुओं के आचार एवं विहार आदि के नियमों के उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा दार्शनिक ढंग से की है। इन्होंने भी प्रसंगानुकूल ज्ञान, प्रमाण, नय और निक्षेप के विषय में पर्याप्त लिखा है। भाष्य साहित्य वस्तुतः आगम-युगीन दार्शनिक विचारों का एक विश्वकोष है। लगभग ७वीं तथा ८वीं शताब्दियों की चूर्णियों में भी दार्शनिक तत्त्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। चूर्णिकारों में आचार्य जिनदास महत्तर बहविश्रत एवं प्रसिद्ध हैं। इनकी सबसे बडी चर्णि 'निशीथ चर्णि' है। जैन आगम साहित्य का एक भी विषय ऐसा नहीं है, जिसकी चर्चा संक्षेप में अथवा विस्तार में निशीथ चूर्णि में न की गई हो। 'निशीथ चूर्णि' में क्या है? इस प्रश्न की अपेक्षा, यह प्रश्न करना उपयुक्त रहेगा, कि 'निशीथ चूर्णि' में क्या नहीं है। उसमें ज्ञान और विज्ञान है, आचार और विचार हैं, उत्सर्ग और अपवाद हैं, धर्म और दर्शन हैं और परम्परा और संस्कृति हैं। जैन परम्परा के इतिहास की ही नहीं, भारतीय इतिहास की बहुत सी बिखरी कड़ियाँ 'निशीथ चूर्णि' में उपलब्ध हो जाती हैं। साधक जीवन का एक भी अंग ऐसा नहीं है, जिसके विषय में चूर्णिकार की कलम मौन रही हो। यहाँ तक कि बौद्ध जातकों के ढंग की प्राकृत कथाएँ भी इस चूर्णि में काफी बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अहिंसा, अनेकान्त, ग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, त्याग एवं संयम इन सभी विषयों में आचार्य जिनदास महत्तर ने अपनी सर्वाधिक विशिष्ट कृति 'निशीथ चूर्णि' को एक प्रकार से विचार रत्नों का महान् आकर ही बना दिया है। 'निशीथ चूर्णि' जैन परम्परा के दार्शनिक साहित्य में भी सामान्य नहीं एक विशेष कृति है, जिसे समझना आवश्यक है। जैन आगमों की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आचार्य हरिभद्र ने लिखी है। उनका समय ७५७ विक्रम से ८५७ के बीच का है। हरिभद्र ने प्राकृत चूर्णियों का प्रायः संस्कृत में अनुवाद ही किया है। कहीं-कहीं पर अपने दार्शनिक ज्ञान का उपयोग करना भी उन्होंने ठीक समझा है। उनकी टीकाओं में सभी दर्शनों की पूर्व पक्ष रूप से चर्चा उपलब्ध होती है। इतना ही नहीं, किन्तु जैन-तत्त्व को दार्शनिक ज्ञान के बल से निश्चित-रूप में स्थिर करने का प्रयत्न भी देखा जाता है। हरिभद्र के बाद आचार्य शीलांकसूरि ने १०वीं शताब्दी में आचारांग और सूत्रकृतांग पर संस्कृत टीकाओं (१९)
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy