SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतज्ञान] [१७३ एवमाइ। से त्तं उक्कालि। ८०—आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत कितने प्रकार का है? आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है—(१) कालिक—जिस श्रुत का रात्रि व दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में स्वाध्याय किया जाता है। (२) उत्कालिक जो कालिक से भिन्न काल में भी पढ़ा जाता है। उत्कालिक श्रुत कितने प्रकार का है? वह अनेक प्रकार का है, जैसे—(१) दशवैकालिक (२) कल्पाकल्प (३) चुल्लकल्पश्रुत (४) महाकल्पश्रुत (५) औपपातिक (६) राजप्रश्नीय (७) जीवाभिगम (८) प्रज्ञापना (९) महाप्रज्ञापना (१०) प्रमादाप्रमाद (११) नन्दी (१२) अनुयोगद्वार (१३) देवेन्द्रस्तव (१४) तन्दुलवैचारिक (१५) चन्द्रविद्या (१६) सूर्यप्रज्ञप्ति (१७) पौरुषीमंडल (१८) मण्डलप्रदेश (१९) विद्याचरणविनिश्चय (२०) गणिविद्या (२१) ध्यानविभक्ति (२२) मरणविभक्ति (२३) आत्मविशुद्धि (२४) वीतरागश्रुत (२५) संलेखनाश्रुत (२६) विहारकल्प (२७) चरणविधि (२८) आतुरप्रत्याख्यान और (२९) महाप्रत्याख्यान इत्यादि। यह उत्कालिक श्रुत का वर्णन सम्पूर्ण हुआ। विवेचन यहाँ सूत्रकार ने कालिक और उत्कालिक सूत्रों के नामों का उल्लेख करते हुए बताया है कि जो नियत काल में अर्थात् दिन और रात्रि के प्रथम व अंतिम प्रहर में पढ़े जाते हैं, वे कालिक कहलाते हैं, और जो अस्वाध्याय के समय के अतिरिक्त भी रात्रि और दिन में पढ़े जाते हैं वे उत्कालिक कहलाते हैं। उत्कालिक-कालिक श्रुत का संक्षिप्त परिचय दशवैकालिक और कल्पाकल्प ये दो सूत्र स्थविर आदि कल्पों का प्रतिपादन करते हैं। महाप्रज्ञापना इसमें प्रज्ञापना सूत्र की अपेक्षा जीवादि पदार्थों का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। प्रमादाप्रमाद इस सूत्र में मद्य, विषय, कषाय, निद्रा तथा विकथा आदि प्रमादों का वर्णन है। अपने कर्तव्य एवं अनुष्ठानादि में सतर्क रहना अप्रमाद है, जो मोक्ष का मार्ग है, और इसके विपरीत प्रमाद संसार-भ्रमण कराने वाला है। सूर्यप्रज्ञप्ति—इसमें सूर्य का विस्तृत स्वरूप वर्णित है। पौरुषीमंडल इस सूत्र में मुहूर्त, प्रहर आदि कालमान का वर्णन है। मण्डलप्रवेश सूर्य के एक मंडल से दूसरे मंडल में प्रवेश करने का विवरण इसमें दिया गया है। विद्या-चरण-विनिश्चय—इसमें विद्या और चारित्र का प्रतिपादन किया गया है।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy