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[ नन्दीसूत्र
अगमिक श्रुत—– जिसके पाठों की समानता न हो अर्थात् — जिस ग्रन्थ अथवा शास्त्र में पुनः पुनः एक सरीखे पाठ न आते हों वह अगमिक कहलाता है । दृष्टिवाद गमिक श्रुत है तथा कालिकश्रुत सभी अगमिक हैं ।
१७२] भण्णइ ।"
मुख्यतया श्रुतज्ञान के दो भेद किए जाते हैं— अङ्गप्रविष्ट (बारह अंगों के अन्तर्गत) और अङ्गबाह्य। आचारांग सूत्र से लेकर दृष्टिवाद तक सब अङ्गप्रविष्ट कहलाते हैं और इनके अतिरिक्त सभी अङ्गबाह्य । वृत्तिकार ने अङ्गों को इस प्रकार बताया है—
" इह पुरुषस्य द्वादशाङ्गानि भवन्ति, तद्यथा— द्वौ पादौ द्वे जसे, द्वे उरूणी, द्वे गात्रार्द्धे, द्वौ बाहू, ग्रीवा शिरश्च, एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याऽऽचारादीनि द्वादशाङ्गानि क्रमेण वेदितव्यानि । "
अर्थात् जिस प्रकार सर्वलक्षण युक्त पुरुष के दौ पैर, दो जंघाएँ, दो उरू, दो पार्श्व, दो भुजाएँ, गर्दन और सिर, इस प्रकार बारह अंग होते हैं, वैसे ही परमपुरुष श्रुत के भी बारह अंग हैं। तीर्थंकरों के उपदेशानुसार जिन शास्त्रों की रचना गणधर स्वयं करते हैं, वे अंगसूत्र कहलाते हैं और अंगों का आधार लेकर जिनकी रचना स्थविर करते हैं, वे शास्त्र अंगबाह्य कहे जाते हैं । अंगबाह्य सूत्र दो प्रकार के होते हैं—– आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यक सूत्र में अवश्यमेव करने योग्य क्रियाओं का वर्णन है। इसके छह अध्ययन हैं, सामायिक, जिनस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । इन छहों में समस्त करणीय क्रियाओं का समावेश हो जाता है। इसीलिये अंगबाह्य सूत्रों में प्रथम स्थान आवश्यकसूत्र को दिया गया है। उसके बाद अन्य सूत्रों का नम्बर आता है। इसके महत्त्व का दूसरा कारण यह है कि चौतीस अस्वाध्यायों में आवश्यकसूत्र का कोई अस्वाध्याय नहीं है। तीसरा कारण इसका विधिपूर्वक अध्ययन दोनों कालों में करना आवश्यक है । इन्हीं कारणों से यह अंगबाह्य सूत्रों में प्रथम माना गया है।
८०—से किं तं आवस्सय-बइरित्तं ?
आवस्यवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं तं जहा कालिअं च उक्कालियं च ।
से किं तं उक्कालिअं ?
उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा - (१) दसवेआलिअं (२) कप्पिआकप्पिअं (३) चुल्लकप्पसुअं (४) महाकप्पसुअं (५) उववाइअं (६) रायपसेणिअं (७) जीवाभिगमो (८) पन्नवणा (९) महापन्नवणा (१०) पमायप्पमायं ( ११ ) नंदी (१२) अणुओगदराई (१३) देविंदत्थओ (१४) तंदुलवेआलिअं (१५) चंदाविज्झयं (१६) सूरपण्णत्ती ( १७ ) पोरिसिमंडलं ( १८ ) मंडलपवेसो (१९) विज्जाचरणविणिच्छओ ( २० ) गणिविज्जा (२१) झाणविभत्ती (२२) मरणविभत्ती (२३) आयविसोही (२४) वीयरागसुअं (२५) संलेहणासुअं (२३) विहारकप्पो (२७) चरणविही (२८) आउरपच्चक्खाणं (२९) महापच्चक्खाणं,