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________________ श्रुतज्ञान] [१६९ (४) भाव से सर्वज्ञ सर्वदर्शी जिन-तीर्थंकरों द्वारा जो भाव-पदार्थ जिस समय सामान्यरूप से कहे जाते हैं, जो नाम आदि भेद दिखलाने के लिए विशेष रूप से कथन किये जाते हैं, हेतुदृष्टान्त के उपदर्शन से जो स्पष्टतर किये जाते हैं और उपनय तथा निगमन से जो स्थापित किये जाते हैं, तब उन भावों की अपेक्षा से सादि-सान्त है। क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत अनादि अनन्त है। अथवा भवसिद्धिक (भव्य) प्राणी का श्रुत सादि-सान्त है, अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव का मिथ्या-श्रुत अनादि और अनन्त है। सम्पूर्ण आकाश-प्रदेशों का समस्त आकश प्रदेशों के साथ अनन्त बार गुणाकार करने से पर्याय अक्षर निष्पन्न होता है। सभी जीवों के अक्षर-श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग सदैव उद्घाटित (निरावरण) रहता है। यदि वह भी आवरण को प्राप्त हो जाए तो उससे जीवात्मा अजीवभाव को प्राप्त हो जाए। क्योंकि चेतना जीव का लक्षण है। __बादलों का अत्यधिक पटल ऊपर आ जाने पर भी चन्द्र और सूर्य की कुछ न कुछ प्रभा तो रहती ही है। इस प्रकार सादि-सान्त और अनादि-अनन्त श्रुत का वर्णन है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सादि-श्रुत, सान्त-श्रुत, अनादि-श्रुत और अनन्त-श्रुत का वर्णन है। सूत्रकार ने "साइयं सपज्जवसियं, अणाइयं अपज्जवसियं" ये पद दिये हैं। सपर्यवसित सान्त को कहते हैं और अपर्यवसित अनन्त का द्योतक है। यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक व्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से सादि-सान्त है, किन्तु अव्युच्छित्तिनय की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है। इसका कारण यह है कि व्युच्छित्तिनय पर्यायास्तिक का ही दूसरा नाम है, और अव्युच्छित्तिनय द्रव्यार्थिक नय का पर्यायवाची नाम है। द्रव्यत:-एक जीव की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत सादि-सान्त है। जब सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तब सम्यक्श्रुत की आदि और जब वह पहले या तीसरे गुणस्थान में प्रवेश करता है तब पुनः मिथ्यात्व का उदय होते ही सम्यक्श्रुत भी लुप्त हो जाता है। प्रमाद, मनोमालिन्य, तीव्रवेदना अथवा विस्मृति के कारण, या केवलज्ञान उत्पन्न होने के कारण प्राप्त किया हुआ श्रुतज्ञान लुप्त होता है तब वह उस पुरुष की अपेक्षा से सान्त कहलाता है। . किन्तु तीनों कालों की अपेक्षा से अथवा बहुत पुरुषों की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत अनादिअनन्त है, क्योंकि ऐसा एक भी समय न कभी हुआ है, न है और न होगा ही। जब सम्यक्श्रुत वाले ज्ञानी जीव विद्यमान न हों। सम्यक्श्रुत का सम्यक्दर्शन से अवनाभावी संबंध है, और बहुत पुरुषों की अपेक्षा से सम्यक्श्रुत (द्वादशाङ्ग वाणी) अनादि अनन्त है। क्षेत्रतः—पाँच भरत और पाँच ऐरावत, इन दस क्षेत्रों की अपेक्षा से गणिपिटक सादि-सान्त है, क्योंकि अवसर्पिणीकाल के सुषुमदुषम आरा के अन्त में और उत्सर्पिणीकाल में दुःषमसुषम के प्रारम्भ में तीर्थंकर भगवान् सर्वप्रथम धर्मसंघ की स्थापना के लिये द्वादशाङ्ग गणिपिटक की प्ररूपणा
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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