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________________ १७०] [ नन्दीसूत्र करते हैं। उसी समय सम्यक् श्रुत का प्रारम्भ होता है । इस अपेक्षा से वह सादि तथा दुःषदुःष में सम्यक् श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है, इस अपेक्षा से सम्यक् श्रुत गणिपिटक सान्त है । किन्तु पाँच महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा गणिपिटक अनादि- अनन्त है, क्योंकि महाविदेह क्षेत्र में उसका सदा सद्भाव रहता है। कालतः–जहाँ उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल वर्तते हैं, वहाँ सम्यक् श्रुत सादि - सान्त है, क्योंकि धर्म की प्रवृत्ति कालचक्र के अनुसार होती है । पाँच महाविदेह क्षेत्र में न उत्सर्पिणी काल है और न अवसर्पिणी। इस प्रकार वहाँ कालचक्र का परिवतर्न न होने से सम्यक् श्रुत सदैव अवस्थित रहता है, अतः वह अनादि अनन्त है । भावतः — जिस तीर्थंकर ने जो भाव प्ररूपित किए हैं, उनकी अपेक्षा सम्यक् श्रुत सादि - सान्त है किन्तु क्षयोपशम भाव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है । यहाँ पर चार भंग होते हैं- (१) सादि सान्त (२) सादि - अनन्त (३) अनादि - सान्त और (४) अनादि-अनन्त । पहला भंग भवसिद्धिक में पाया जाता है, कारण कि सम्यक्त्व होने पर अंग सूत्रों का अध्ययन किया जाता है, वह सादि हुआ । मिथ्यात्व के उदय से या क्षायिक ज्ञान हो जाने से वह सम्यक् श्रुत उसमें नहीं रहता, इस दृष्टि से सान्त कहलाता है । क्योंकि सम्यक् श्रुत क्षायोपशमिक ज्ञान है और सभी क्षायोपशमिक ज्ञान सान्त होते हैं, अनन्त नहीं । 1 दूसरा भंग शून्य है, क्योंकि सम्यक् श्रुत अथवा मिथ्याश्रुत सादि होकर अनन्त नहीं होता । मिथ्यात्व का उदय होने पर सम्यक् श्रुत नहीं रहता और सम्यक्त्व प्राप्त होने पर मिथ्याश्रुत नहीं रह सकता। केवलज्ञान होने पर दोनों का विलय हो जाता है । तीसरा भंग भव्यजीव की अपेक्षा से समझना चाहिये क्योंकि भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि का मिथ्या श्रुत अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु उसके सम्यक्त्व प्राप्त करते ही मिथ्या श्रुत का अन्त हो जाता है, इसलिए अनादि- सान्त कहा गया है। चौथा भंग अनादि-अनन्त है । अभव्यसिद्धिक का मिथ्याश्रुत अनादि - अनन्त होता है, क्योंकि उसको सम्यक्त्व की प्राप्ति कभी नहीं होती । पर्यायाक्षर लोकाकाश और अलोकाकाश रूप सर्व आकाश प्रदेशों को सर्व आकाश प्रदेशों से एक, दो संख्यात या असंख्यात बार नहीं, अनन्त बार गुणित करने पर भी प्रत्येक आकाश प्रदेश में जो अनन्त अगुरुलघु पर्याय है, उन सबको मिलाकर पर्यायाक्षर निष्पन्न होता है। धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेश स्तोक होने से सूत्रकार ने उन्हें ग्रहण नहीं किया है किन्तु उपलक्षण से उनका भी ग्रहण करना चाहिए । अक्षर दो प्रकार के हैं— ज्ञान रूप और आकार आदि वर्ण रूप, यहाँ दोनों का ही ग्रहण करना चाहिए। अनंत पर्याययुक्त होने से अक्षर शब्द से केवलज्ञान ग्रहण किया जाता है । लोक में 1
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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