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[ नन्दीसूत्र
सादि, सान्त, अनादि, अनन्त श्रुत
७८ से किं तं साइअं - सपज्जवसिअं ? अणाइअं - अपज्जवसिअं च ?
इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्टयाए साइअं सपज्जवसिअं, अव्वच्छित्तिनट्टयाए अणाइअं अपज्जवसिअं । तं समासओ चडव्विहं पण्णत्तं तं जहा— दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ - ( १ ) दव्वओ णं सम्मसुअं एगं पुरिसं पडुच्च साइअं सपज्जवसिअं, बहवे पुरिसे य पडुच्च अणाइयं अपज्जवसिअं ।
(२) खेत्तओ णं पंच भरहाइं, पंचेरवयाई, पडुच्च साइअं सपज्जवसिअं, पंच महाविदेहाई पडुच्च अणाइयं अपज्जवसिअं ।
( ३ ) कालओ णं उस्सप्पिणि ओसप्पिणिं च पडुच्च साइअं सपज्जवसिअं, नोउस्सप्पिणि नोओसप्पिणिं च पडुच्च अणाइयं अपज्जवसिअं ।
(४) भावओ णं जे जया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जंति, पण्णविज्जंति, परूविज्जंति, दंसिज्जंति, निदंसिज्र्ज्जति, उवदंसिज्जंति, तया (ते) भावे पडुच्च साइअं सपज्जवसिअं । खाओवसमिअं पुण भावं पडुच्च अणाइअं अपज्जवसिअं ।
अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसिअं च अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसिअं (च)।
सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अनंतगुणिअं पज्जवक्खरं निष्फज्जइ, सव्वजीवाणंपि अ णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा ।
'सुट्ठवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराणं ।'
से त्तं साइअं सपज्जवसिअं, से त्तं अणाइयं अपज्जवसिअं ।
॥ सूत्र ४३ ॥
७८ – प्रश्न – सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित श्रुत का क्या स्वरूप है ?
उत्तर—यह द्वादशाङ्गरूप गणिपिटक पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से सादि - सान्त है, और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से आदि अन्त रहित है। यह श्रुतज्ञान संक्षेप में चार प्रकार से वर्णित किया गया है, जैसे—द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से ।
(१) द्रव्य से सम्यक् श्रुत, एक पुरुष की अपेक्षा से सादि - सपर्यवसित अर्थात् सादि और सान्त है। बहुत से पुरुषों की अपेक्षा से अनादि अपर्यवसित अर्थात् आदि अन्त से रहित है।
(२). क्षेत्र से सम्यक् श्रुत पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों की अपेक्षा से सादि - सान्त है । पाँच महाविदेह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है ।
(३) काल से सम्यक् श्रुत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल की अपेक्षा से सादि - सान्त है। नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी अर्थात् अवस्थित काल की अपेक्षा से अनादि - अनन्त है ।