SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुतज्ञान ] [ १६७ करते हैं, उनके केवल प्राण मानते हैं, और इसी कारण उन्हें मारकर खाने में भी पाप नहीं समझते। यह मिथ्यात्व है। (७) असाहुसु साहुसण्णा असाधु को साधु मानना । जो व्यक्ति धन-वैभव, स्त्री- पुत्र, जमीन या मकान आदि किसी के भी त्यागी नहीं हैं; ऐसे मात्र वेषधारी को साधु मानना मिथ्यात्व है । (८) साहुसु असाहुसण्णा श्रेष्ठ, संयत, पांच महाव्रत एवं समिति तथा गुप्ति के धारक मुनियों को असाधु समझते हुए उन्हें ढोंगी, पाखण्डी मानना मिथ्यात्व है। (९) अमुत्तेसु मुत्तसण्णा— अमुक्तों को मुक्त मानना । जिन जीवों ने कर्म - बन्धनों से मुक्त होकर भगवत्पद प्राप्त नहीं किया है, उन्हें कर्म बंधनों से रहित और मुक्त मानना मिथ्यात्व है। (१०) मुत्तेसु अमुत्तसण्णा — आत्मा कभी परमात्मा नहीं बनता, कोई जीव सर्वज्ञ नहीं हो सकता तथा आत्मा न कभी कर्म-बन्धनों से मुक्त हुआ है और न कभी होगा। ऐसी मान्यता रखते हुए जो आत्माएँ कर्म-बन्धनों से मुक्त हो चुकी हैं, उन्हें भी अमुक्त मानना मिथ्यात्व है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार असली हीरे को नकली और नकली काँच के टुकड़ों को हीरा समझने वाला जौहरी नहीं कहलाता, इसी प्रकार असत् को सत् तथा सत् को असत् समझने वाला सम्यकदृष्टि नहीं कहलाता । वह मिथ्यादृष्टि होता है । मिथ्याश्रुत एवं सम्यक् श्रुत पर विशेष विचार " एयाई मिच्छदिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं ।" बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि द्वारा रचे गये ग्रन्थं द्रव्य - मिथ्याश्रुत हैं, मिथ्यादृष्टि में भावमिथ्याश्रुत होता है । दृष्टि गलत होने से ज्ञानधारा मलिन हो जाती है और ज्ञान सत्य नहीं होता । मिथ्यादृष्टि गलत ज्ञान धारा वाले तथा अध्यात्ममार्ग से भटके हुए होते हैं। इसलिये उनके कथनानुसार जो व्यक्ति चलता है वह भी मोक्ष मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। 'एयाइं चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहियाई सम्मसुयं ।' मिथ्यादृष्टि द्वारा रचित ग्रन्थों को भी सम्यग्दृष्टि यथार्थ रूप से ग्रहण करता है तो उसके लिए मिथ्याश्रुत, सम्यक् श्रुतरूप में परिणत हो जाता है । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार चतुर वैद्य अपनी विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा विष को भी अमृत बना लेता है, हंस दूध को ग्रहण करके पानी छोड़ देता है तथा स्वर्ण को खोजने वाले मिट्टी में से स्वर्णकण निकालकर असार को त्याग देते । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि नय-निक्षेप आदि के विचार से मिथ्या श्रुत को सम्यक् श्रुत रूप परिणत कर लेता है । " अहवा मिच्छदिट्ठस्सवि एयाई चेव सम्मसुयं, कम्हा ?" सूत्र में कहा गया है कि मिथ्याश्रुत मिथ्यादृष्टि के लिए भी सम्यक् श्रुत हो सकता है। वह इस प्रकार कि जब मिथ्यादृष्टि, सम्यकदृष्टि के द्वारा अपने ग्रन्थों में रही हुई पूर्वापर विरोधी तथा असंगत बातों को जानकर अपने गलत स्वपक्ष को छोड़ देता है तो सम्यकदृष्टि बन जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्व का कारण होने से मिथ्याश्रुत भी सम्यक् श्रुत रूप में परिणत हो जाता है ।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy