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________________ श्रुतज्ञान] [१६३ ____ यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक चौदह पूर्वधारी का सम्यक्श्रुत ही होता है। सम्पूर्ण दस पूर्वधारी का भी सम्यक्श्रुत ही होता है। उससे कम अर्थात् कुछ कम दस पूर्व और नव आदि पूर्व का ज्ञान होने पर विकल्प है, अर्थात् सम्यक्श्रुत हो और न भी हो। इस प्रकार यह सम्यक्श्रुत का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन इस सूत्र में सम्यक्श्रुत का वर्णन किया गया है। सम्यक्श्रुत के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते हैं, जैसे (१) सम्यक्श्रुत के प्रणेता कौन हो सकते हैं ? (२) सम्यक्श्रुत किसको कहते हैं ? (३) गणिपिटक का क्या अर्थ है ? तथा (४) आप्त किसे कहते हैं ? इन सबका उत्तर विवेचन सहित क्रमशः दिया जायेगा। सम्यक्श्रुत के प्रणेता देवाधिदेव अरिहन्त प्रभु हैं। अरिहन्त शब्द गुण का. वाचक है, व्यक्तिवाचक नहीं। नाम, स्थापना और द्रव्य निक्षेप यहाँ अभिप्रेत नहीं है। अर्थात् यदि किसी का नाम अरिहन्त है तो उसका यहाँ प्रयोजन नहीं है, अरिहन्त के चित्र या प्रतिमा आदि स्थापनानिक्षेप का भी नहीं, और भविष्य में अरिहन्त पद प्राप्त करने वाले जीवों से या जिन अरिहन्तों ने सिद्ध पद प्राप्त कर लिया है, ऐसे परित्यक्तशरीर जो द्रव्यनिक्षेप के अन्तर्गत आते हैं, उनका भी प्रयोजन यहाँ नहीं है, क्योंकि वे भी सम्यक्श्रुत के प्रणेता नहीं हो सकते। केवल भावनिक्षेप से जो अरिहन्त हैं, वे ही सम्यक्श्रुत के प्रणेता होते हैं। भाव अरिहन्तों के लिये सूत्रकार ने सात विशेषण बताए हैं, यथा (१) अरिहन्तेहिं—जो राग, द्वेष, विषय-कषायादि अठारह दोषों से रहित और चार घनघाति कर्मों का नाश कर चुके हैं, ऐसे उत्तम पुरुष भाव अरिहन्त कहलाते हैं। भाव तीर्थंकर इन विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं। (२) भगवन्तेहिं जिस लोकोत्तर महान् आत्मा में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, असीम उत्साह और शक्ति, त्रिलोकव्यापी यश, अद्वितीय श्री, रूप-सौन्दर्य, सोलहों कलाओं से पूर्ण धर्म, विश्व के समस्त उत्तमोत्तम गुण तथा आत्मशुद्धि के लिये अथक श्रम हो, उसे ही वस्तुतः भगवान् कहा जा सकता शंका हो सकती है कि भगवन्त' शब्द सिद्धों के लिये भी प्रयुक्त होता है तो क्या वे भी सम्यक्श्रुत के प्रणेता हो सकते हैं ? इस शंका का समाधान यह है कि सिद्धों में रूप का सर्वथा अभाव है, क्योंकि अशरीरी होने से उनमें रूप ही नहीं तो समग्र रूप कैसे रह सकता है? रूप-सौन्दर्य सशरीरी में ही होता है। दूसरे आत्म-सिद्धि के लिये अथक एवं पूर्ण प्रयत्न भी सशरीरी ही कर सकता है, अशरीरी नहीं। अतः
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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