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________________ १६४] [ नन्दीसूत्र यही सिद्ध होता है कि सिद्ध भगवान् श्रुत के प्रणेता नहीं हैं और भगवान् शब्द यहाँ अरिहन्तों की विशेषता बताने के लिये ही प्रयुक्त किया गया है। (३) उप्पण्ण-नाणदंसणधरेहिं— अरिहन्त का तीसरा विशेषण है— उत्पन्न ज्ञानदर्शन के धारक। वैसे ज्ञान-दर्शन तो अध्ययन और अभ्यास से भी हो सकता है पर ऐसे ज्ञान - दर्शन में पूर्णता नहीं होती। यहाँ सम्पूर्ण ज्ञान दर्शन अभिप्रेत है । शंका हो सकती है कि यह तीसरा विशेषण ही पर्याप्त है, फिर अरिहन्त - भगवान् के लिये पूर्वोक्त दो विशेषण क्यों जोड़े हैं? इसका उत्तर यही है कि तीसरा विशेषण तो सामान्य केवली में भी पाया जाता है, किन्तु वे सम्यक् श्रुत के प्रणेता नहीं होते । अतः यह विशेषण दोनों पदों की पुष्टि करता है । कुछ लोग ईश्वर को अनादि सर्वज्ञ मानते हैं, उनके मत का निषेध करने के लिये भी यह विशेषण दिया गया है। क्योंकि वह 'उत्पन्न हो गया है ज्ञान दर्शन जिसमें यह विशेषण उसमें नहीं पाया जाता है । (४) तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइएहिं जो त्रिलोकवासी असुरेन्द्रों, नरेन्द्रों और देवेन्द्रों के द्वारा प्रगाढ़ श्रद्धा-भक्ति से अवलोकित हैं, असाधारण गुणों के कारण प्रशंसित हैं तथा मन, वचन एवं कर्म की शुद्धता से वंदनीय और नमस्करणीय हैं, सर्वोत्कृष्ट सम्मान एवं बहुमान आदि से पूजित हैं । (५) तीयपडुप्पण्णमणागयजाणएहिं जो तीनों कालों के ज्ञाता हैं । यह विशेषण मायावियों में तो नहीं पाया जाता, किन्तु कुछ व्यवहारनय की मान्यता वालों का कथन है— ऋषयः संयतात्मानः फलमूलानिलाशनाः । तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ अर्थात्—–विशिष्ट ज्योतिषी, तपस्वी और दिव्यज्ञानी भी तीन कालों को उपयोगपूर्वक जान सकते हैं। इसलिये सूत्रकार ने छठा विशेषण बताते हुए कहा है— (६) सव्वण्णूहिंजो सर्वज्ञानी अर्थात् लोक अलोक आदि समस्त के ज्ञाता हैं, जो विश्व में स्थित सम्पूर्ण पदार्थों को हस्तामलकवत् जानते हैं, जिनके ज्ञानरूपी दर्पण में भी सभी द्रव्य और पर्याय युगपत् प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, जिनका ज्ञान निःसीम है, उनके लिये यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है। (७) सव्वदरिसीहिं— जो सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों का साक्षात्कार करते हैं। जो इन सात विशेषणों से सम्पन्न होते हैं, वस्तुतः वे ही सर्वोत्तम आप्त होते हैं। वे ही द्वादशाङ्ग गणिपिटक के प्रणेता और सम्यक् श्रुत के रचयिता होते हैं । उक्त सातों विशेषण तेरहवें गुणस्थानवर्ती तीर्थंकर देवों के हैं, न कि अन्य पुरुषों के । पटक–पटक पेटी या सन्दूक को कहते हैं। जैसे राजा-महाराजाओं तथा धनाढ्य श्रीमन्तों के यहाँ पेटियों अथवा सन्दूकों में हीरे, पन्ने, मणि, माणिक एवं विभिन्न प्रकार के रत्नादि
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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