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________________ श्रुतज्ञान] [१५७ अनक्षरश्रुत ७४ से किं तं अणक्खर-सुअं? अणक्खर-सुअं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा ___ऊससियं नीससियं, निच्छूढं खासियं च छीयं च । निस्सिघिय-मणुसारं, अणक्खरं छेलिआईअं॥ से तं अणक्खरसुअं। ॥ सूत्र ३९॥ ७४ अनक्षरश्रुत कितने प्रकार का है? अनक्षरश्रुत अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे, ऊपर को श्वास लेना. नीचे श्वास लेना, थकना, खांसना, छींकना, नि:सिंघना (नाक साफ करना) तथा अन्य अनुस्वार युक्त चेष्टा करना आदि। यह सभी अनक्षरश्रुत हैं। विवेचन अक्षरश्रुत-सूत्र में अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत का वर्णन किया गया है। क्षर 'संचलने' धातु से अक्षर शब्द बनता है। यथा—न क्षरति—न चलति—इत्यक्षरम् अर्थात् अक्षर का अर्थ ज्ञान है, ज्ञान जीव का स्वभाव है। द्रव्य अपने स्वभाव में स्थिर रहता है। जीव भी एक द्रव्य है, उसमें जो स्वभाव-गुण हैं वे अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाये जाते और अन्य द्रव्यों में जो गुणस्वभाव हैं वे जीव में नहीं पाये जाते। आत्मा से ज्ञान कभी नहीं हटता, सुषुप्ति अवस्था में भी जीव का स्वभाव होने के कारण ज्ञान बना रहता है। यहाँ भावाक्षर का कारण होने से लिखित एवं उच्चारित 'अकार' आदि को भी उपचार से 'अक्षर' कहा गया है। अक्षरश्रुत, भावश्रुत का कारण है। भावश्रुत को लब्धि-अक्षर भी कहते हैं। संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर ये दोनों द्रव्यश्रुत में अन्तर्निहित हैं। इसलिए अक्षरश्रुत के तीन भेद किये गये हैं, संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर तथा लब्ध्यक्षर। (१) संज्ञाक्षर अक्षर की आकृति, बनावट या संस्थान को संज्ञाक्षर कहते हैं। उदाहरणस्वरूप-अ, आ, इ, ई अथवा A, B, C, D, आदि लिपियां। अन्य भाषाओं की भी जितनी लिपियाँ हैं, उनके अक्षर भी संज्ञाक्षर समझना चाहिये। (२) व्यंजनाक्षर—व्यंजनाक्षर वे कहलाते हैं, जो अकार, इकार आदि अक्षर बोले जाते हैं। विश्व में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनके उच्चारणरूप अक्षर व्यंजनाक्षर कहलाते हैं। जैसे दीपक के द्वारा प्रत्येक वस्तु प्रकाशित होकर दिखाई देने लगती है, उसी प्रकार व्यंजनाक्षरों के द्वारा अर्थ समझ में आता है। जिस-जिस अक्षर की जो-जो संज्ञा होती है, उनका उच्चारण भी तदनुकूल हो, तभी वे द्रव्याक्षर, भावश्रुत के कारण बन सकते हैं। अक्षरों के सही मेल से शब्द बनता है, पद और वाक्य बनते हैं, जिनके संकलन से बड़े-बड़े ग्रन्थ तैयार होते हैं। (३) लब्ब्यक्षर शब्द को सुनकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन करना लब्धि-अक्षर कहलाता है। यही भावश्रुत है, क्योंकि अक्षर के उच्चारण से जो उसके अर्थ का बोध होता है, उससे ही भावश्रुत उत्पन्न होता है। कहा भी है— "शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थपर्यालोचनानुसारि
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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