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________________ मतिज्ञान] [१५१ (११) ध्रुव-इन्द्रिय और मन को सही निमित्त मिलने पर विषय को नियम से जानना। किसी मशीन का कोई पुर्जा खराब हो तो उस विषय का विशेषज्ञ आकर खराब पुर्जे को अवश्यमेव पहचान लेगा। अपने विषय का गुण-दोष जान लेना उसके लिये अवश्यंभावी है। (१२) अधुव—निमित्त मिलने पर भी कभी ज्ञान हो जाता है और कभी नहीं, कभी वह चिरकाल तक रहने वाला होता है, कभी नहीं। स्मरण रखना चाहिये कि बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव इनमें विशेष क्षयोपशम, उपयोग की एकाग्रता एवं अभ्यस्तता कारण हैं तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव ज्ञानों में क्षयोपशम की मन्दता, उपयोग की विक्षिप्तता, अनभ्यस्तता आदि कारण होते हैं। किसी के चक्षुरिन्द्रिय की प्रबलता होती है तो वह किसी भी वस्तु को, शत्रु-मित्रादि को दूर से ही स्पष्ट देख लेता है। किसी के श्रोत्रेन्द्रिय की प्रबलता हो तो वह मन्दतम शब्द को भी आसानी से सुन लेता है। घ्राणेन्द्रिय जिसकी तीव्र हो, वह परोक्ष में रही हुई वस्तु को भी गंध के सहारे पहचान लेता है, जिस प्रकार अनेक कुत्ते वायु में रही हुई मन्दतम गंध से ही चोर-डाकुओं को पकड़वा देते हैं। मिट्टी को सूंघकर ही भूगर्भवेत्ता धातुओं की खानें खोज लेते हैं। चींटी आदि अनेक कीड़े-मकोड़े अपनी तीव्र घ्राणेन्द्रिय के द्वारा दूर रहे हुए खाद्य पदार्थों को ढूंढ लेते हैं। सूंघकर ही असली-नकली पदार्थों की पहचान की जाती है। व्यक्ति जिह्वा के द्वारा चखकर खाद्य-पदार्थों का मूल्यांकन करता है तथा उसमें रहे हुए गुण-दोषों को पहचान लेता है। नेत्र-हीन व्यक्ति लिखे हुए अक्षरों को अपनी तीव्र स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा स्पर्श करते हुए पढ़कर सुना देते हैं। इसी प्रकार नोइन्द्रिय अर्थात् मन की तीव्र शक्ति होने पर व्यक्ति प्रबल चिन्तन-मनन से भविष्य में घटने वाली घटनाओं के शुभाशुभ परिणाम को ज्ञात कर लेते हैं। यह सब ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मों के विशिष्ट क्षयोपशम के अद्भुत फल हैं। ___ मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों और छठे मन के माध्यम से उत्पन्न होता है। इन छहों को अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के साथ जोड़ने पर चौबीस भेद हो जाते हैं। चक्षु और मन को छोड़कर चार इन्द्रियों द्वारा व्यंजनावग्रह होता है, अतः चौबीस में इन चार भेदों को जोड़ने से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं। तत्पश्चात् अट्ठाईस को बारह-बारह भेदों से गुणित करने पर तीनसौ छत्तीस भेद होते हैं। मतिज्ञान के ये तीन सौ छत्तीस भेद भी सिर्फ स्थूल दृष्टि से समझने चाहिये, वैसे तो मतिज्ञान के अनन्त भेद हैं। मतिज्ञान का विषय वर्णन ६४ तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। (१) तत्थ दव्वओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ, न पासइ। (२) खेत्तओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वं खेत्तं जाइण, न पासइ।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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