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________________ १५०] [नन्दीसूत्र (६) अक्षिप्रग्राही (६) अवग्रह (६) अवाय (६) धारणा ( ७) अनिश्रितग्राही (६) अवग्रह (६) ईहा (६) अवाय (६) धारणा (८) निश्रितग्राही (६) अवग्रह (६) अवाय (६) धारणा ( ९) असंदिग्धग्राही (६) अवग्रह (६) ईहा (६) अवाय (६) धारणा (१०) संदिग्धग्राही (६) अवग्रह (६) ईहा (६) अवाय (६) धारणा (११) ध्रुवग्राही (६) अवग्रह (६) ईहा (६) अवाय (६) धारणा (१२) अध्रुवग्राही (६) अवग्रह (६) ईहा (६) अवाय (६) धारणा (१) बहु-इसका अर्थ अनेक है, यह संख्या और परिमाण दोनों की अपेक्षा से हो सकता है। वस्तु का अनेक पर्यायों को तथा बहुत परिमाण वाले द्रव्य को जानना या किसी बहुत बड़े परिमाण वाले विषय को जानना। (२) अल्प किसी एक ही विषय को, या एक ही पर्याय को स्वल्पमात्रा में जानना। (३) बहुविध किसी एक ही द्रव्य को या एक ही वस्तु को या एक ही विषय को बहुत प्रकार से जानना जैसे वस्तु का आकार-प्रकार, रंग-रूप, लंबाई-चौड़ाई, मोटाई अथवा उसकी अवधि इत्यादि अनेक प्रकार से जानना। (४) अल्पविध—किसी भी वस्तु या पर्याय को, जाति या संख्या आदि को अल्प प्रकार से जानना। अधिक भेदों सहित न जानना। (५) क्षिप्र—किसी वक्ता या लेखक के भावों को शीघ्र ही किसी भी इन्द्रिय या मन के द्वारा जान लेना। स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा अन्धकार में भी किसी व्यक्ति या वस्तु को पहचान लेना। (६) अक्षिप्र–क्षयोपशम की मंदता से या विक्षिप्त उपयोग से किसी भी इन्द्रिय या मन के विषय को अनभ्यस्त अवस्था में कुछ विलम्ब से जानना। (७) अनिश्रित बिना ही किसी हेतु के, बिना किसी निमित्त के वस्तु की पर्याय और गुण को जानना। व्यक्ति के मस्तिष्क में कोई ऐसी सूझबूझ पैदा होना जबकि वही बात किसी शास्त्र या पुस्तक में भी लिखी मिल जाये। .. (८) निश्रित—किसी हेतु, युक्ति, निमित्त, लिंग आदि के द्वारा जानना। जैसे—एक व्यक्ति ने शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को उपयोग की एकाग्रता से अचानक चन्द्र-दर्शन कर लिया और दूसरे ने किसी और के कहने पर अर्थात् बाह्य निमित्त से चन्द्र-दर्शन किया। इनमें से पहला पहली कोटि में और दूसरा दूसरी कोटि में गर्भित हो जाता है। (९) असंदिग्ध किसी व्यक्ति ने जिस पर्याय को भी जाना, उसे सन्देह रहित होकर जाना। जैसे—'यह संतरे का रस है, यह गुलाब का फूल है अथवा आने वाला व्यक्ति मेरा भाई है।' (१०) संदिग्ध किसी वस्तु को संदिग्ध रूप से जानना। जैसे, कुछ अंधेरे में यह दूँठ है या पुरुष ? यह धुंआ है या बादल ? यह पीतल है या सोना ? इस प्रकार सन्देह बना रहना।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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