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________________ १५२] [नन्दीसूत्र (३) कालओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ, न पासइ। (४) भावओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वे भावे जाणइ, न पासइ। ६४—वह आभिनिबोधिक-मतिज्ञान संक्षेप में चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। (१) द्रव्य से मतिज्ञानी सामान्य प्रकार से सर्व द्रव्यों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। (२) क्षेत्र से मतिज्ञानी सामान्य रूप से सर्व क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं। (३) काल से मतिज्ञानी सामान्यतः तीनों कालों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। (४) भाव से मतिज्ञान का धारक सामान्यतः सब भावों को जानता है, पर देखता नहीं। विवेचन—इस सूत्र में मतिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संक्षेप में चार भेद वर्णन किये गये हैं। जैसे—(१) द्रव्यतः द्रव्य से आभिनिबोधिक ज्ञानी आदेश सामान्य रूप से सभी द्रव्यों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। यहाँ 'आदेश' शब्द का तात्पर्य है प्रकार। वह सामान्य और विशेष रूप, इन दो भेदों में विभाजित है, किन्तु यहाँ पर केवल सामान्य रूप ही ग्रहण करना चाहिए। अतः मतिज्ञानी सामान्य आदेश के द्वारा धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्यों को जानता है, किन्तु कुछ विशेष रूप से भी जानता है। : आदेश का एक अर्थ श्रुत भी होता है। इसके अनुसार शंका हो सकती है कि श्रुत के आदेश से द्रव्यों का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो श्रुतज्ञान हुआ, किन्तु यहाँ तो प्रकरण मतिज्ञान का है। इस शका का निराकरण यह है कि श्रुतनिश्रित मति को भी मतिज्ञान बतलाया गया है। इस विषय में भाष्यकार कहते हैं आदेसो त्ति व सुत्तं, सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं। पसरइ तब्भावणया, विणा वि सुत्तानुसारेणं ॥ अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात पदार्थों में, तत्काल श्रुत का अनुसरण किये बिना, केवल उसकी वासना से मतिज्ञान होता है। अतएव उसे मतिज्ञान ही जानना चाहिए, श्रुतज्ञान नहीं। सूत्रकार ने "आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ न पासइ" इसमें 'न पासइ' पद दिया है, किन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में ऐसा पाठ है"दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ, पासइ।" -भगवती सूत्र, श० ८, उ० २, सू० २२२ वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इस विषय में कहा है कि "मतिज्ञानी सर्व द्रव्यों को अवाय और धारणा की अपेक्षा से जानता है और अवग्रह तथा ईहा की अपेक्षा से देखता है, क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान के बोधक हैं तथा अवग्रह और ईहा, ये दोनों अपेक्षाकृत सामान्यबोधक होने से दर्शन
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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