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________________ मतिज्ञान] [१३९ उत्पन्न नहीं होते। दूसरे शब्दों में ईहा का मूर्ल अर्थावग्रह होता है। आगे सूत्रकार ने 'नोइंदियअत्थुग्गहे' पद दिया है। नोइन्द्रिय अर्थात् मन। मन भी दो प्रकार का होता है—द्रव्यरूप और भावरूप। जीव में मनःपर्याप्ति नामकर्मोदय से ऐसी शक्ति पैदा होती है, जिससे मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके द्रव्य-मन की रचना की जाती है। जिस प्रकार उत्तम आहार से शरीर पुष्ट होकर कार्य करने की क्षमता प्राप्त करता है, उसी प्रकार मनोवर्गणा के नए-नए पुद्गलों को ग्रहण करके मन कार्य करने में सक्षम बनता है। उसे द्रव्य-मन कहा जाता है। चूर्णि में कहा गया है-"मणपज्जत्तिनामकम्मोदयओ तज्जोग्गे मणोदब्वे घेत्तुं मणत्तणेण परिणामिया दव्वा दव्वमणो भण्ण्इ।" द्रव्यमन के होते हुए जीव का मननरूप जो परिणाम है, उस को भाव-मन कहते हैं। द्रव्यमन के बिना भावमन कार्यकारी नहीं हो सकता। भावमन के अभाव में भी द्रव्यमन होता है, जैसे भवस्थ केवली के द्रव्यमन रहता है, किन्तु वह कार्यकारी नहीं होता है। जब इन्द्रियों की अपेक्षा के बिना केवल मन से ही अवग्रह होता है तब वह नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह कहा जाता है, अन्यथा वह इन्द्रियों का सहयोगी बना रहता है। ५७ तस्स णं इमे एगट्ठिया नाणाघोसा, नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तं जहा—ओगेण्हणया, उवधारणया, सवणया, अवलंबणया, मेहा, से तं उग्गहे। ५७–अर्थावग्रह के एक अर्थवाले, उदात्त आदि नाना घोष वाले 'क' आदि नाना व्यञ्जन वाले पाँच नाम हैं। यथा—(१) अवग्रहणता (२) उपधारणता (३) श्रवणता (४) अवलम्बनता (५) मेघा। यही अवग्रह है। विवेचन इस सूत्र में अर्थावग्रह के पर्यायान्तर नाम दिये गये हैं। प्रथम समय में आए हुए शब्द आदि पुद्गलों का ग्रहण करना अवग्रह कहलाता है जो तीन प्रकार का होता है। जैसे—व्यंजनावग्रह, सामान्यार्थावग्रह और विशेषसामान्यार्थावग्रह । विशेषसामान्य-अर्थावग्रह औपचारिक है। (१) अवग्रहणता व्यंजनावग्रह अन्तर्मुहूर्त का होता है। उसके प्रथम समय में पुद्गलों के ग्रहण करने रूप परिणाम को अवग्रहणता कहते हैं। (२) उपधारणता व्यंजनावग्रह के प्रथम समय के पश्चात् शेष समयों में नये-नये पुद्गलों को प्रतिसमय ग्रहण करना और पूर्व समयों में ग्रहण किये हुए को धारण करना उपधारणता (३) श्रवणता—एक समय के सामान्यार्थावग्रह बोधरूप परिणाम को श्रवणता कहते हैं। (४) अवलम्बनता—जो सामान्य ज्ञान से विशेष की ओर अग्रसर हो तथा उत्तरवर्ती ईहा, अवाय और धारणा तक पहुँचने वाला हो उसे अवलम्बनता कहते हैं। (५) मेघा—मेधा सामान्य-विशेष को ही ग्रहण करती है। एगट्ठिया—इस पद के भावानुसार, यद्यपि अवग्रह के पांच नाम बताए गए हैं तदपि ये पाँचों
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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