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[नन्दीसूत्र ५५-से किं तं वंजणुग्गहे ?
वंजणुग्गहे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जह (१) सोइंदिअवंजणुग्गहे (२) घाणिंदियवंजणुग्गहे (३) जिभिदियवंजणुग्गहे (४) फासिंदियवंजणुग्गहे, से तं वंजणुग्गहे।
५५—प्रश्न—यह व्यंजनावग्रह कितने प्रकार का है?
उत्तर—व्यंजनावग्रह चार प्रकार का कहा गया है, यथा—(१) श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह (२) घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह (३) जिह्वेन्द्रियव्यंजनावग्रह (४) स्पर्शेन्द्रियव्यंजनावग्रह।
यह व्यंजनावग्रह हुआ।
विवेचन-चक्षु और मन के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियां प्राप्यकारी होती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय विषय को केवल स्पृष्ट होने मात्र से ही ग्रहण करती है। स्पर्शन, रसन और घ्राणेन्द्रिय, ये तीनों विषय को बद्ध स्पृष्ट होने पर ग्रहण करती हैं। जैसे रसनेन्द्रिय का जब तक रस से सम्बन्ध नहीं हो जाता, तब तक उसका अवग्रह नहीं हो सकता। इसी प्रकार स्पर्श और घ्राण के विषय में भी जानना चाहिये। किन्तु चक्षु और मन को विषय ग्रहण करने के लिये स्पृष्टता तथा बद्धस्पृष्टता आवश्यक नहीं है। ये दोनों दूर से ही विषय को ग्रहण करते हैं। नेत्र अपने में आंजे गए अंजन को न देख पाकर भी दूर की वस्तुओं को देख लेते हैं। इसी प्रकार मन भी स्वस्थान पर रहकर ही दूर रही वस्तुओं का चिन्तन कर लेता है। यह विशेषता चक्षु और मन में ही है, अन्य इन्द्रियों में नहीं। इसीलिये चक्षु और मन को अप्राप्यकारी माना गया है। इन पर विषयकृत अनुग्रह या उपघात नहीं होता जब कि अन्य चारों पर होता है।
५६-से किं तं अत्थुग्गहे ?
अत्थुग्गहे छविहे पण्णत्ते, तं जहा—(१) सोइंदियअत्थुग्गहे (२) चक्खिदियअत्थुग्गहे (३) घाणिंदियअत्थुग्गहे (४) जिभिदियअत्थुग्गहे (५) फासिंदियअत्थुग्गहे, (६) नोइंदियअत्थुग्गहे।
५६—अर्थावग्रह कितने प्रकार का है ?
वह छह प्रकार का कहा गया है, यथा—(१) श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह (३) चक्षुरिन्द्रियअर्थावग्रह (३) घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह (४) जिह्वेन्द्रियअर्थावग्रह (५) स्पर्शेन्द्रियअर्थावग्रह (६) नोइन्द्रियअर्थावग्रह।
विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अर्थावग्रह के छह प्रकार बताए गए हैं। अर्थावग्रह उसे कहते हैं जो रूपादि अर्थों का सामान्य रूप में ही ग्रहण करता है किन्तु वही सामान्य ज्ञान उत्तरकालभावी, ईहा, अवाय और धारणा से स्पष्ट एवं परिपक्व बनता है। जिस प्राकर एक छोटी सी लौ अथवा चिनगारी से विराट प्रकाशपुञ्ज बन जाता है, उसी प्रकार अर्थ का सामान्य बोध होने पर विचार विमर्श, चिन्तन-मनन एवं अनुप्रेक्षा आदि के द्वारा उसे विशाल बनाया जा सकता है। इस प्रकार अर्थ की धूमिल-सी झलक का अनुभव होना अर्थावग्रह कहलाता है। उसके बिना ईहा आदि अगले ज्ञान