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________________ मतिज्ञान] [१३७ दोनों प्रकार के धर्म रहते हैं, वह द्रव्य कहलाता है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, ये चारों सम्पूर्ण द्रव्यग्राही नहीं हैं। ये प्रायः पर्यायों को ही ग्रहण करते हैं। पर्याय से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का ग्रहण स्वतः हो जाता है। द्रव्य के अवस्थाविशेष को पर्याय कहते हैं। कर्मों से आवृत देहगत आत्मा को इन्द्रियों और मन के माध्यमों से ही बाह्य पदार्थों का ज्ञान होता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर के अंगोपाङ्गनामकर्म के उदय से द्रव्येन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से भावेन्द्रियाँ प्राप्त होती है। द्रव्येन्द्रियाँ तथा भावेन्द्रियाँ, दोनों ही एक दूसरी के बिना अकिंचित्कर हैं। इसलिए जिन-जिन जीवों को जितनी-जितनी इन्द्रियाँ मिलती हैं वे उसके द्वारा उतना-उतना ही ज्ञान प्राप्त करते हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीव को केवल स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह होता है। अर्थावग्रह पटुक्रमी तथा व्यंजनावग्रह मन्दक्रमी होता है। अर्थावग्रह अभ्यास से तथा विशेष क्षयोपशम से होता है और व्यंजनावग्रह अभ्यास के बिना तथा क्षयोपशम की मन्दता में होता है। यद्यपि सूत्र में प्रथम अर्थावग्रह का और फिर व्यंजनावग्रह का निर्देश किया गया है किन्तु उनकी उत्पत्ति का क्रम इससे विपरीत है, अर्थात् पहले व्यंजनावग्रह और तत्पश्चात् अर्थावग्रह उत्पन्न होता है। 'व्यज्यते अनेनेति व्यञ्जनं' अथवा 'व्यज्यते इति व्यञ्जनम्' अर्थात जिसके द्वारा व्यक्त किया जाए या जो व्यक्त हो, वह व्यंजन कहलाता है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार व्यंजन के तीन अर्थ फलित होते हैं—(१) उपकरणेन्द्रिय (२) उपकरणेन्द्रिय तथा उसका अपने ग्राह्य विषय के साथ संयोग और (३) व्यक्त होने वाले शब्दादि विषय। सर्वप्रथम होने वाले दर्शनोपयोग के पश्चात् व्यञ्जनावग्रह होता है। इसका काल असंख्यात समय है। व्यंजनावग्रह के अन्त में अर्थावग्रह होता है और इसका काल एक समय मात्र है। अर्थावग्रह के द्वारा सामान्य का बोध होता है। यद्यपि व्यंजनावग्रह के द्वारा ज्ञान नहीं होता तथापि उसके अन्त में होने वाले अर्थावग्रह के ज्ञानरूप होने से, अर्थात ज्ञान का कारण होने से ज्ञान माना गया है। एवं व्यंजनावग्रह में भी अत्यल्प-अव्यक्त ज्ञान की कुछ मात्रा होती अवश्य है, क्योंकि यदि उसके असंख्यात समयों में लेश मात्र भी ज्ञान न होता तो उसके अन्त में अर्थावग्रह में यकायक ज्ञान कैसे हो जाता! अतएव अनुमान किया जा सकता है कि व्यंजनावग्रह में भी अव्यक्त ज्ञानांश होता है किन्तु अति स्वल्प रूप में होने के कारण वह हमारी प्रतीति में नहीं आता। दर्शनोपयोग महासामान्य सत्ता मात्र का ग्राहक है, जबकि अवग्रह में अपरसामान्य मनुष्यत्व आदि का बोध होता है।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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