________________
मतिज्ञान ]
अश्रुतनिश्रित मतिज्ञात का वर्णन पूर्ण हुआ ।
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान
५३ – से किं तं सुयनिस्सियं ?
सुयनिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं तं जहा—
(१) उग्गहे (२) ईहा (३) अवाओ ( ४ ) धारणा । ॥ सूत्र २७ ॥
५३ – शिष्य ने पूछा— श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कितने प्रकार का है ?
गुरु ने उत्तर दिया—वह चार प्रकार का है, यथा
(१) अवग्रह (२) ईहा (३) अवाय ( ४ ) धारणा ।
[ १३५
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि कभी तो मतिज्ञान स्वतंत्र रूप से कार्य करता है और कभी श्रुतज्ञान के सहयोग से। जो मतिज्ञान श्रुतज्ञान पूर्वकालिक संस्कारों के निमित्त से उत्पन्न होता है, उसके चार भेद हो जाते हैं—अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार है
( १ ) अवग्रह— जो ज्ञान नाम, जाति, विशेष्य, विशेषण आदि विशेषताओं से रहित, मात्र सामान्य को ही जानता है वह अवग्रह कहलाता है । वादिदेवसूरि लिखते हैं- "विषयविषयसन्निपातानन्तर समुद्भूत- सत्तामात्रगोचर - दर्शनाज्जातमाद्यम्, अवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रहः । "
- प्रमाणनयतत्त्वालोक, परि २ सू.
अर्थात्—–—विषय-पदार्थ और विषयी इन्द्रिय, नो-इन्द्रिय आदि का यथोचित देश में सम्बन्ध होने पर सत्तामात्र ( महासत्ता) को जानने वाला दर्शन उत्पन्न होता है। इसके अनन्तर सबसे पहले मनुष्यत्व, जीवत्व, द्रव्यत्व आदि अवान्तर (अपर) सामान्य से युक्त वस्तु को जाननेवाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है।
जैनागमों में उपयोग के दो प्रकार बताये हैं— (१) साकार उपयोग तथा (२) अनाकार उपयोग। इन्हीं को ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग भी कहा गया है। ज्ञान का पूर्वभावी होने से दर्शनोपयोग का भी वर्णन ज्ञानोपयोग का वर्णन करने के लिए किया गया है। ज्ञान की यह धारा उत्तरोत्तर विशेष की ओर झुकती जाती है ।
(२) ईहा — भाष्यकार ने ईहा की परिभाषा करते हुए बताया है— अवग्रह में सत् और असत् दोनों से अतीत सामान्यमात्र का ग्रहण होता है किन्तु उसकी छानबीन करके असत् को छोड़ते हुए सत् रूप का ग्रहण करना ईहा का कार्य है। प्रमाणनयतत्त्वालोक में भी ईहा का स्पष्टीकरण करते हुए बताया 'अवगृहीतार्थविशेषाकांक्षणमीहा । "
44
अर्थात् अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की जिज्ञासा को ईहा कहते हैं । दूसरे