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________________ मतिज्ञान] [८९ (६) सरट (गिरगिट)—एक बार एक व्यक्ति जंगल में जा रहा था। उसे शौच की हाजत हुई। शीघ्रता में वह जमीन पर एक बिल देखकर, उसी पर शरीर-चिन्ता की निवृत्ति के लिए बैठ गया। अकस्मात् वहाँ एक गिरगिट आ गया और उस व्यक्ति के गुदा भाग को स्पर्श करता हुआ बिल में घुस गया। शौचार्थ बैठे हुए व्यक्ति के मन में यह समा गया कि निश्चय ही गिरगिट मेरे पेट में प्रविष्ट हो गया है। बात उसके दिल में जम गई और वह इसी चिन्ता में घुलने लगा। बहुत उपचार कराने पर भी जब वह स्वस्थ नहीं हो सका तो एक दिन फिर किसी अनुभवी वैद्य के पास पहुँचा। वैद्य ने नाड़ी-परीक्षा के साथ-साथ अन्य प्रकार से भी उसके शरीर की जाँच की, किन्तु कोई भी बीमारी प्रतीत न हुई। तब वैद्य ने उस व्यक्ति से पूछा-'तुम्हारी ऐसी स्थिति कबसे चल रही है?' व्यक्ति ने आद्योपान्त्य समस्त घटित घटना कह सुनाई। वैद्य ने जान लिया कि यह भ्रमवश घुल रहा है। उसकी बुद्धि औत्पत्तिकी थी। अत: व्यक्ति के रोग का इलाज भी उसी क्षण उसके मस्तिष्क में आ गया। वैद्यजी ने कहीं से एक गिरगिट पकड़वा मंगाया। उसे लाक्षारस से अवलिप्त कर एक भाजन में डाल दिया। तत्पश्चात् रोगी को विरेचन की औषधि दी और कहा -'तुम इस पात्र में शौच । जाओ।' व्यक्ति ने ऐसा ही किया। वैद्य उस भाजन को प्रकाश में उठा लाया और उस व्यक्ति को गिरगिट दिखा कर बोला—'देखो! यह तुम्हारे पेट में से निकल आया है।' व्यक्ति को संतोष हो' गया और इसी विश्वास के कारण वह बहुत जल्दी स्वास्थ्य-लाभ करता हुआ पूर्ण नीरोग हो गया। (७) काक–वेन्नातट नगर में भिक्षा के लिए भ्रमण करते समय एक बौद्धभिक्षु को जैन मुनि मिल गये। बौद्ध भिक्षु ने उपहास करते हुए जैन मुनि से कहा-'मुनिराज! तुम्हारे अर्हन्त सर्वज्ञ हैं और तुम उनके पुत्र हो तो बताओ इस नगर में वायस अर्थात् कौए कितने हैं?' जैन मुनि ने भिक्षु की धूर्तता को समझ लिया और उसे सीख देने के इरादे से अपनी औत्पत्तिकी बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा—'भंते! इस नगर में साठ हजार—कौए हैं, और यदि कम हैं तो इनमें से कुछ बाहर मेहमान बन कर चले गए हैं और यदि अधिक हैं तो कहीं से मेहमान के रूप में आए हुए हैं। अगर आपको इसमें शंका हो तो गिनकर देख लीजिये।' जैन मुनि की बुद्धिमत्ता के समक्ष भिक्षु लज्जावनत होकर वहाँ से चल दिया। (८) उच्चार-मल-परीक्षा- 'एक बार एक व्यक्ति अपनी नवविवाहिता, सुन्दर पत्नी के साथ कहीं जा रहा था। रास्ते में उन्हें एक धूर्त व्यक्ति मिला। कुछ समय साथ चलने एवं वार्तालाप करने से नववधू उस धूर्त पर आसक्त हो गई और उसके साथ जाने के लिए तैयार भी हो गई। धूर्त ने कहना शुरु कर दिया कि यह स्त्री मेरी है। इस बात पर दोनों में झगड़ा शुरू हो गया। अन्त में विवाद करते हुए वे न्यायालय में पहुँचे। दोनों स्त्री पर अपना अधिकार बता रहे थे। यह देखकर न्यायाधीश ने पहले तो तीनों को अलग-अलग कर दिया। तत्पश्चात् स्त्री के पति से पूछा—'तुमने कल क्या खाना खाया था?' स्त्री के पति ने कहा—'मैंने और मेरी पत्नी ने कल तिल के लड्डू
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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