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[ नन्दीसूत्र निकालने का।"
अभयकुमार ने उसी क्षण कहा- "अगर मुझे अनुमति मिले तो मैं अंगूठी निकाल दूं।" उस व्यक्ति के द्वारा यह बात जानकर राजकर्मचारियों ने निकाल देने का अनुरोध किया। अभयकुमार ने सर्वप्रथम कुएँ में झांककर अंगूठी को भलीभाँति देखा। तत्पश्चात् कुछ ही दूर पर पड़ा हुआ गोबर उठाया और कुएं में पड़ी हुई अँगूठी पर डाल दिया। अंगूठी गोबर में चिपक गई। कुछ समय पश्चात् गोबर के सूखने पर उसने कुएं में पानी भरवाया और अंगूठी समेत उस गोबर के ऊपर तैर आने पर हाथ बढ़ाकर उसे निकाल लिया। एकत्रित लोग यह देखकर चकित और प्रसन्न हुए। अंगूठी निकलने का समाचार राजा तक पहुँचा। राजा ने अभयकुमार को बुलवाया और पूछा "वत्स, तुम कौन हो, कहाँ के हो?"
अभयकुमार ने उत्तर दिया- "मैं आपका ही पुत्र हूँ।" यह कल्पनातीत उत्तर सुनकर राजा हैरान हो गया किन्तु पूछने पर अभयकुमार ने अपने जन्म से लेकर राजगृह में पहुंचने तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। सुनकर राजा को असीम प्रसन्नता हुई। उसने अपने बुद्धिमान् और सुयोग्य पुत्र को हृदय से लगा लिया। पूछा- 'तुम्हारी माता कहाँ हैं?' अभयकुमार ने उत्तर दिया-'मैं उन्हें नगर से बाहर छोड़कर आया हूँ।'
यह सुनते ही राजा अपने परिजनों के साथ स्वयं रानी नंदा को लिवाने के लिये चल पड़ा। इधर अभयकुमार ने पहले ही पहुँचकर अपनी माता से पिता के मिलने का तथा उनके राजमहल से चल पड़ने का समाचार दे दिया। रानी नंदा हर्ष-विह्वल हो गई। इतने में ही महाराजा श्रेणिक भी आ पहुँचे। समग्र जनता हर्ष-विभोर थी। राजा ने औत्पत्तिकी बुद्धि के धनी अपने पुत्र अभयकुमार को मंत्रिपद प्रदान किया तथा सानन्द समय व्यतीत होने लगा।
(५) पट 'दो व्यक्ति कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक सुन्दर व शीतल जल का सरोवर देखकर उनकी इच्छा स्नान करने की हो गई। दोनों ने अपने-अपने वस्त्र उतारकर सरोवर के किनारे रख दिये तथा स्नान करने के लिए सरोवर में उतर गये। उनमें से एक व्यक्ति जल्दी बाहर आ गया और अपने साथी का ऊनी कम्बल ओढ़कर चलता बना। जब दूसरे ने यह देखा तो वह घबरा कर चिल्लाया—'अरे भाई, मेरा कम्बल क्यों लिए जा रहा है?' किन्तु पहले व्यक्ति ने कोई उत्तर नहीं दिया। तब कम्बल का मालिक दौड़ता हुआ उसके पास गया। वह अपना कम्बल मांगने लगा, पर ले जाने वाले ने कम्बल नहीं दिया और दोनों में परस्पर झगड़ा हो गया। अन्ततोगत्वा यह झगड़ा न्यायालय में पेश हुआ। न्यायाधीश की समझ में नहीं आया कि कम्बल किसका है? न कम्बल पर नाम था और न ही कोई साक्षी था जो कम्बल वाले को पहचान सकता। किन्तु अचानक ही अपनी
औत्पत्तिकी बुद्धि के बल पर न्यायाधीश ने दो कंघियाँ मंगवाई और दोनों के बालों में फिरवाई। उससे मालूम हुआ कि जिस व्यक्ति का कम्बल था उसके बालों में ऊन के धागे थे और दूसरे के बालों में कपास के तन्तु। इस परीक्षा के बाद कम्बल उसके वास्तविक स्वामी को दिलवा दिया गया। दूसरे को अपराध के अनुसार दंड मिला।