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________________ ७०] . [नन्दीसूत्र (५) एकान्तर-उपयोग के पक्ष में केवली का असर्वज्ञत्व और असर्वदर्शित्व सिद्ध होता है। क्योंकि जब केवली का उपयोग ज्ञान में है तब दर्शन में उपयोग न होने से वे असर्वदर्शी होते हैं और जब दर्शन में उपयोग है तब ज्ञानोपयोग न होने से उनमें असर्वज्ञत्व का प्रसंग आ जाता है। अतः युगपद् उपयोग मानना ही दोष रहित है। (६) क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, ये तीन कर्म एक साथ ही क्षीण होते हैं। तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में आवरण नष्ट होने पर ज्ञानदर्शन एक साथ प्रकाशित होते हैं। इसलिए एकान्तर-उपयोग पक्ष उपयुक्त नहीं है। एकान्तर उपयोगवाद (१) केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दोनों सादि-अनन्त हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं, किन्तु यह कथन लब्धि की अपेक्षा से है, न कि उपयोग की अपेक्षा से। मति, श्रुत और अवधिज्ञान का लब्धिकाल ६६ सागरोपम से कुछ अधिक है, जबकि उपयोग अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता। इस समाधान से उक्त दोष की निवृत्ति हो जाती है। (२) निरावरण ज्ञान-दर्शन का युगपत् उपयोग न मानने से आवरणक्षय मिथ्या सिद्ध हो जायेगा, यह कथन भी उपयुक्त नहीं। क्योंकि किसी विभंगज्ञानी को सम्यक्त्व उत्पन्न होते ही मति, श्रुत और अवधि, ये तीनों ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं, यह आगम का कथन है। किन्तु उनके उपयोग का युगपत् होना आवश्यक नहीं है। जैसे चार ज्ञानों के धारक को चतुर्ज्ञानी कहते हैं फिर भी उसका उपयोग एक ही समय में चारों में नहीं रहता, किसी एक में होता है। स्पष्ट है कि जानने व देखने का समय एक नहीं अपितु भिन्न-भिन्न होता है। __ (प्रज्ञापनासूत्र, पद ३० तथा भगवतीसूत्र श. २५) (३) एकान्तर-उपयोग पक्ष में इतरेतरावरणता नामक दोष कहना भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन सदैव निरावरण रहते हैं। इनको क्षायिक लब्धि भी कहते हैं और इनमें से किसी एक में चेतना के प्रवाहित हो जाने को उपयोग कहा जाता है। छद्मस्थ का ज्ञान या दर्शन में उपयोग अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहा। केवली के ज्ञान और दर्शन का उपयोग एक-एक समय तक ही रहता है। इस प्रकार उपयोग सदा सादि सान्त ही होता है। वह कभी ज्ञान में और कभी दर्शन में परिवर्तित होता रहता है। इससे इतरेतरावरणता दोष मानना उचित है। (४) अनावरण होते ही ज्ञान-दर्शन का पूर्ण विकास हो जाता है, फिर निष्कारण-आवरण होने का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि आवरण और उसके हेतु नष्ट होने पर ही केवलज्ञान होता है। किन्तु उपयोग का स्वभाव ऐसा है कि वह दोनों में से एक समय में किसी एक में ही प्रवाहित होता है, दोनों में नहीं। (५) केवली जिस समय जानते हैं उस समय देखते नहीं, इससे असर्वदर्शित्व और जिस समय देखते हैं उस समय जानते नहीं, इससे असर्वज्ञत्व सिद्ध होता है, इस कथन का प्रत्युत्तर यही
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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