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ज्ञान के पांच प्रकार]
[६९ है—जैसे सूर्य और उसका ताप युगपत् होते हैं, वैसे ही निरावरण ज्ञान-दर्शन भी एक साथ प्रकाश करते हैं अर्थात् अपने-अपने विषय को ग्रहण करते रहते हैं, क्रमशः नहीं। इस मान्यता के समर्थक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर आदि हैं जो अपने समय के अद्वितीय तार्किक विद्वान् थे।
___(३) तीसरी मान्यता अभेदवादियों की है। उनका कथन है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों एकरूप हो जाते हैं। जब ज्ञान से सब कुछ जान लिया जाता है तब पृथक् दर्शन की क्या आवश्यकता है? दूसरे, ज्ञान प्रमाण माना गया है, दर्शन नहीं, अतः वह अप्रधान है। इस मान्यता के समर्थक आचार्य वृद्धवादी हुए हैं।
युगपत् उपयोगवाद यहाँ पर एकान्तर-उपयोगवादियों की मान्यता का खंडन करते हुए युगपद्वादियों ने विभिन्न प्रमाणों द्वारा अपने मत की पुष्टि की है। युगपद्वादियों का मत है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों उपयोग सादि-अनन्त हैं, इसलिए केवली एक साथ पदार्थों को जानता भी है और देखता भी है। कहा भी है
जं केवलाई सादी, अपज्जवसिताई दोऽवि भणिताई।
तो बेंति केइ जुगवं, जाणइ पासइ य सव्वण्णू॥ (१) उनकी मान्यता है कि एकान्तर उपयोग पक्ष में सादि-अनन्तता घटित नहीं होती, क्योंकि जब ज्ञान का उपयोग होता है तब दर्शन का नहीं रहता और जब दर्शनोपयोग होता है तब ज्ञानोपयोग नहीं रहता। इससे उक्त ज्ञान, दर्शन सादि-सान्त सिद्ध होते हैं।
(२) एकान्तर-उपयोग में दूसरा दोष मिथ्यावरणक्षय है। केवलज्ञानावरण और दर्शनावरण का पूर्णरूप से क्षय हो जाने पर भी यदि ज्ञान के समय दर्शन का और दर्शन के साथ ज्ञान का उपयोग नहीं रहता तो आवरणों का क्षय मिथ्या बेकार हो जायेगा। जैसे दो दीपकों को निरावरण कर देने से वे एक साथ प्रकाश करते हैं, इसी प्रकार दोनों उपयोग एक साथ प्रकाश करते हैं, क्रमशः नहीं। यही मान्यता निर्दोष है।
(३) युगपद्वादी एकान्तर-उपयोग पक्ष में तीसरा दोष इतरेतरावरणता सिद्ध करते हैं। यदि दर्शन के उपयोग से ज्ञान का उपयोग रुक जाता है और ज्ञानोपयोग होने पर दर्शनोपयोग नहीं रहता तो निष्कर्ष यह हुआ कि ये दोनों एक दूसरे के आवरण हैं। किन्तु ऐसा मानना आगम-विरुद्ध है।
(४) एकान्तर-उपयोग के पक्ष में चौथा दोष 'निष्कारण आवरणता' है—ज्ञान और दर्शन को आवृत करने वाले ज्ञान-दर्शनावरण का सर्वथा क्षय हो जाने पर भी यदि उनका उपयोग निरन्तरसदैव चालू नहीं रहता और उनको आवृत करने वाला अन्य कोई कारण हो नहीं सकता तो यह मानना पड़ेगा कि बिना कारण ही उन पर बीच-बीच में आवरण आ जाता है। अर्थात् आवरणक्षय हो जाने पर भी निष्कारण आवरण का सिलसिला जारी ही रहता है, जो कि सिद्धान्तविरोधी
है।