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________________ ६८] [नन्दीसूत्र __उत्तर–परम्परसिद्ध-केवलज्ञान अनेक प्रकार से प्ररूपित है, यथा—अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतु:समयसिद्ध, यावत् दससमयसिद्ध, संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध। इस प्रकार परम्परसिद्ध-केवलज्ञान का वर्णन है। तात्पर्ययह है कि परम्परसिद्धों के सूत्रोक्त भेदों के अनुरूप ही उनके केवलज्ञान के भेद हैं। संक्षेप में वह चार प्रकार का है—द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। (१) द्रव्य से केवलज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता व देखता है। (२) क्षेत्र से केवलज्ञानी सर्व लोकालोक क्षेत्र को जानता-देखता है। (३) काल से केवलज्ञानी भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों को जानता व देखता (४) भाव से केवलज्ञानी सर्वद्रव्यों के सर्वभावों—पर्यायों को जानता व देखता है। विवेचन सूत्रकार ने परम्परसिद्ध-केवलज्ञानी का वर्णन किया है। वस्तुतः केवलज्ञान और सिद्धों के स्वरूप में किसी प्रकार की भिन्नता या तरतमता नहीं है। सिद्धों में जो भेद कहा गया है वह पूर्वोपाधि या काल आदि से ही है। केवलज्ञान में मात्र स्वामी के भेद से भेद है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के विषय में आचार्यों की विभिन्न धारणाएँ हैं, जिनका उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। जैनदर्शन पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन इस प्रकार बारह प्रकार का उपयोग मानता है। इनमें से किसी एक में कुछ समय के लिए स्थिर हो जाने को उपयोग कहते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन के सिवाय दस उपयोग छद्मस्थ में पाए जाते ____ मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान और तीन दर्शन अर्थात् छ: उपयोग और छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि में चार ज्ञान तथा तीन दर्शन इस प्रकार सात उपयोग हो सकते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग अनावृत क्षायिक एवं सम्पूर्ण हैं। शेष दस उपयोग क्षायो पशमिक छाद्यस्थिक—आवृतानावृतसंज्ञक हैं। इनमें ह्रास-विकास एवं न्यूनाधिकता होती है। किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन में ह्रास-विकास या न्यून-आधिक्य नहीं होता। वे प्रकट होने पर कभी अस्त नहीं होते। छाद्मस्थिक उपयोग क्रमभावी हैं, अर्थात् एक समय में एक ही उपयोग हो सकता है, एक से अधिक नहीं। इस विषय में सभी आचार्य एकमत हैं, किन्तु केवली के उपयोग के विषय में तीन धारणाएँ हैं, यथा (१) निरावरण ज्ञान-दर्शन होते हुए भी केवली में एक समय में एक ही उपयोग होता है। जब ज्ञान-उपयोग होता है तब दर्शन-उपयोग नहीं होता और जब दर्शन-उपयोग होता है तब ज्ञानउपयोग नहीं हो सकता। इस मान्यता को क्रम-भावी तथा एकान्तर-उपयोगवाद भी कहते हैं। इसके समर्थक जिनभद्र-गणी क्षमाश्रमण आदि हैं। (२) केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में दूसरा मत युगपद्वादियों का है। उनका कथन
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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