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________________ ज्ञान के पांच प्रकार] [७१ है कि आगम में केवली को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भी लब्धि की अपेक्षा से कहा गया है, न कि उपयोग की अपेक्षा से। अतः एकान्तर-उपयोग पक्ष निर्दोष है। (६) युगपत् उपयोगवाद की मान्यता यहाँ तक तो युक्तिसंगत है कि ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्म युगपत् ही क्षीण होते हैं किन्तु उपयोग भी युगपत् ही हो, यह आवयक नहीं है। कहा भी "जुगवं दो नत्थि उवओगा।" अर्थात् दो उपयोग साथ नहीं होते। यह नियम केवल छद्मस्थों के लिए नहीं है। अतएव केवलियों में भी एक साथ, एक समय में एक ही उपयोग पाया जा सकता है, दो नहीं। अभिन्न-उपयोगवाद (१) केवलज्ञान अनुत्तर अर्थात् सर्वोपरि ज्ञान है, इसके उत्पन्न होने पर फिर केवलदर्शन की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती। क्योंकि केवलज्ञान के अन्तर्गत सामान्य और विशेष सभी विषय आ जाते हैं। (२) जैसे चारों ज्ञान केवलज्ञान में अन्तर्भूत हो जाते हैं, उसी प्रकार चारों दर्शन भी इसमें समाहित हो जाते हैं। अतः केवलदर्शन को अलग मानना निरर्थक है। (३) अल्पज्ञता में साकार उपयोग, अनाकार उपयोग तथा क्षायोपशमिक भाव की विभिन्नता के कारण दोनों उपयोगों में परस्पर भेद हो सकता है, किन्तु क्षायिक भाव में दोनों में विशेष अन्तर न रहने से केवलज्ञान ही शेष रह जाता है अतः केवली का उपयोग सदा केवलज्ञान में ही रहता है। (४) यदि केवलदर्शन का अस्तित्व भिन्न माना जाये तो वह सामान्यग्राही होने से अल्प विषयक सिद्ध हो जायेगा, जबकि वह अनन्त विषयक है। (५) जब केवली प्रवचन करते हैं, तब वह केवलज्ञानपूर्वक होता है, इससे अभेद पक्ष ही सिद्ध होता है। (६) नन्दीसूत्र एंव अन्य आगमों में भी केवलदर्शन का विशेष उल्लेख नहीं पाया जाता, इससे भी भासित होता है कि केवलदर्शन केवलज्ञान से भिन्न नहीं रह जाता। सिद्धान्तवादी का पक्ष प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, चाहे वह दृश्य हो या अदृश्य, रूपी हो या अरूपी और अणु हो या महान्। विशेष धर्म भी अनन्तानन्त हैं और सामान्य धर्म भी। विशेष धर्म केवलज्ञानग्राह्य है और सामान्य धर्म केवलदर्शन द्वारा ग्राह्य। दोनों की पर्यायें समान हैं। उपयोग एक समय में दोनों में से एक रहता है। जब वह विशेष की ओर प्रवहमान रहता है तब केवलज्ञान कहलाता है तथा सामान्य की ओर प्रवहमान होने पर केवलदर्शन। इस दृष्टि से चेतना का प्रवाह एक समय में एक ओर ही हो सकता है, दोनों ओर नहीं।
SR No.003467
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_nandisutra
File Size17 MB
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