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उत्तराध्ययन/ ८८
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में साधकों को विविध प्रकार से उपदेशात्मक प्रेरणाएँ दी गई हैं। द्वितीय, ग्यारहवाँ, पन्द्रहवां, सोलहवाँ, सत्तरहवाँ, चौबीसवाँ छब्बीसवाँ बत्तीसवाँ अध्ययन आचारात्मक हैं। इन अध्ययनों में श्रमणाचार का गहराई से विश्लेषण हुआ है। अट्ठाईसवाँ, उनतीसवाँ, तीसवाँ, इकतीसवाँ, तेतीसवाँ, चौतीसवाँ, छत्तीसवाँ ये सात अध्ययन सैद्धान्तिक हैं। इन अध्ययनों में सैद्धान्तिक विश्लेषण गम्भीरता के साथ हुआ है। छत्तीस अध्ययनों में चौदह अध्ययन धर्म कथात्मक होने से इसे धर्मकथानुयोग में लिया गया है। विषयबाहुल्य होने के कारण प्रत्येक विषय पर बहुत ही विस्तार के साथ सहज रूप से लिखा जा सकता है। मैंने प्रस्तावना में न अति संक्षिप्त और न अति विस्तृत शैली को ही अपनाया है, अपितु मध्यम शैली को आधार बनाकर उत्तराध्यन में आये हुए विविध विषयों पर चिन्तन किया है। यदि विस्तार के साथ उन सभी पहलुओं पर लिखा जाता तो एक विराट्काय ग्रन्थ सहज रूप से बन
सकता था।
उत्तराध्ययन की तुलना श्रीमद् भागवत गीता के साथ की जा सकती है। इस दृष्टि से प्रतिभामूर्ति पं. मुनि श्रीसन्तबालजी ने "जैन दृष्टिए गीता" नामक ग्रन्थ में प्रयास किया है। इसी तरह कुछ विद्वानों ने उत्तराध्ययन की तुलना 'धम्मपद' के साथ करने का भी प्रयत्न किया है। समन्वयात्मक दृष्टि से यह प्रयास प्रशंसनीय है। पार्श्वनाथ शोध संस्थान वाराणसी से उत्तराध्ययन पर 'उत्तराध्यवनः एक परिशीलन' के रूप में शोध प्रबन्ध भी प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार उत्तराध्ययन पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, संस्कृत भाषा में अनेक टीकाएं और उसके पश्चात् विपुल मात्रा में हिन्दी अनुवाद और विवेचन लिखे गये हैं, जो इस आगम की लोकप्रियता के ज्वलन्त उदाहरण हैं। अन्य आगमों की भाँति प्रस्तुत आगम का संस्करण भी अत्यधिक लोकप्रिय होगा। प्रबुद्ध वर्ग इसका स्वाध्याय कर अपने जीवन को आध्यात्मिक आलोक से आलोकित करेंगे, यही मंगल मनीषा !
देवेन्द्रमुनि शास्त्री
जैन स्थानक चांदावतों का नोखा
दि. २७ जनवरी
मां महासती प्रभावती जी की प्रथम पुण्यतिथि
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जिनकी प्रेरणा के फलस्वरूप प्रस्तुत संस्करण तैयार हुआ, अत्यन्त परिताप है कि जिनागम-ग्रन्थमाला के संयोजक, प्रधानसम्पादक एवं प्राण श्रद्धेय युवाचार्यजी इसके प्रकाशन से पूर्व ही देवलोकवासी हो गए।
-सम्पादक