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________________ - समीक्षात्मक अध्ययन/८५ - उत्तराध्ययन की टीका का नाम शिष्यहितावृत्ति है। इस टीका में प्राकृत की कथाओं व उद्धरणों की बहुलता होने के कारण इसका दूसरा नाम पाइअटीका भी है। यह टीका मूलसूत्र और नियुक्ति इन दोनों पर है। टीका की भाषा सरस और मधुर है। विषय की पुष्टि के लिए भाष्य-गाथाएं भी दी गई हैं और साथ ही पाठान्तर भी। प्रथम अध्ययन की व्याख्या में नय का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। नय की संख्या पर चिन्तन करते हुए लिखा है-पूर्वविदों ने सकलनयसंग्राही सात सौ नयों का विधान किया है। उस समय "सप्तशत शतार नयचक्र" विद्यमान था। तत्संग्राही विधि आदि का निरूपण करने वाला बारह प्रकार के नयों का "द्वादशारनयचक्र" भी विद्यमान था और वह वर्तमान में भी उपलब्ध है। द्वितीय अध्ययन में वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद ने ईश्वर की जो कल्पना की और वेदों को अपौरुषेय कहा, उस कल्पना को मिथ्या बताकर तार्किक दृष्टि से उसका समाधान किया। अचेल परीषह पर विवेचन करते हुए लिखा-वस्र धर्मसाधना में एकान्त रूप से बाधक नहीं है। धर्म का मूल रूप से बाधक तत्त्व कषाय है। कषाययुक्त धारण किया गया वस्त्र पात्रादि की तरह बाधक है। जो धार्मिक साधना के लिए वस्रों को धारण करता है, वह साधक है। चौथे अध्ययन में जीवप्रकरण पर विचार करते हुए जीव-भावकरण के श्रुतकरण और नौश्रुतकरण ये दो भेद किये गये हैं। पुनः श्रुतकरण के बद्ध और अबद्ध ये दो भेद हैं। बद्ध के निशीथ और अनिशीथ ये दो भेद हैं। उनके भी लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद किये गये हैं। निशीथ सूत्र आदि लोकोत्तर निशीथ है और बृहदारण्यक आदि लौकिक निशीथ हैं। आचारांग आदि लोकोत्तर अनिशीथ श्रुत हैं। पुराण आदि लौकिक अनिशीथ श्रुत हैं। लौकिक और लोकोत्तर भेद से अबद्ध श्रुत के भी दो प्रकार हैं। अबद्ध श्रुत के लिए अनेक कथाएँ दी प्रस्तुत टीका में विशेषावश्यकभाष्य, उत्तराध्ययनचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, सप्तशतारनयचक्र, निशीथ, बृहदारण्यक, उत्तराध्यनभाष्य, स्त्रीनिर्वाणसूत्र आदि ग्रन्थों के निर्देश हैं। साथ ही जिनभद्र, भर्तृहरि, वाचक सिद्धसेन, वाचक अश्वसेन, वात्स्यायन, शिव शर्मन, हारिल्लवाचक, गंधहस्तिन, जिनेन्द्रबुद्धि, प्रभृति व्यक्तियों के नाम भी आये हैं। वादीवैताल शान्तिसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शती है। सुखबोधावृत्ति उत्तराध्ययन पर दूसरी टीका आचार्य नेमिचन्द्र की सुखबोधावृत्ति है। नेमिचन्द्र का अपर नाम देवेन्द्रगणि भी था। प्रस्तुत टीका में उन्होंने अनेक प्राकृतिक आख्यान भी उटूंकित किये हैं। उनकी शैली पर आचार्य हरिभद्र और वादीवैताल शान्तिसूरि का अधिक प्रभाव है। शैली की सरलता व सरसता के कारण उसका नाम सुखबोधा रखा गया है। वृत्ति में सर्वप्रथम तीर्थंकर, सिद्ध, साधु, श्रुत, देवता को नमस्कार किया गया है। वृत्तिकार ने वृत्तिनिर्माण का लक्ष्य स्पष्ट करते हुए लिखा है कि शान्त्याचार्य की वृत्ति गम्भीर और बहुत अर्थ वाली है। ग्रन्थ के अन्त में स्वयं को गच्छ, गुरुभ्राता, वृत्तिरचना के स्थान, समय आदि का निर्देश किया है। आचार्य नेमिचन्द्र बृहद्गच्छीय उद्योतनाचार्य के प्रशिष्य उपाध्याय आम्रदेव के शिष्य थे। उनके गुरुभ्राता का नाम मुनिचन्द्र सूरि था, जिनकी प्रबल प्रेरणा से ही उन्होंने बारह हजार श्लोक प्रमाण इस वृत्ति की रचना की। विक्रम संवत् ग्यारह सौ उनतीस में वृत्ति अणहिलपाटन में पूर्ण हुई।३२४ ३२४. विश्रुतस्य महीपीठे, बृहद्गच्छस्य मण्डनम्। श्रीमान् विहारुकप्रष्ठः सूरिरुद्योतनाभिधः॥ ९ ॥ शिष्यस्तस्याऽऽम्रदेवोऽभूदुपाध्यायः सतां मतः। यत्रैकान्तगुणापूर्णे, दोषैलेंभे पदं न तु ॥ १०॥ श्रीनेमिचंन्द्रसूरिरुद्धृतवान्, वृत्तिकां तद्विनेयः। गुरुसोदर्यश्रीमन्मुनिचन्द्राचार्यवचनेन ॥ ११ ॥
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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