________________
समीक्षात्मक अध्ययन/८३ से दो प्रकार का है। नो-आगम परीषह, ज्ञायक-शरीर, भव्य और तद् व्यतिरिक्त इस प्रकार तीन प्रकार का है। कर्म और नोकर्म रूप से द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं। नोकर्म रूप द्रव्य परीषह सचित्त, अचित्त और मिश्र रूप से तीन प्रकार के हैं। भाव परीषह में कर्म का उदय होता है। उसके कुतः, कस्य, द्रव्य, समवतार, अध्यास, नय, वर्तना, काल, क्षेत्र, उद्देश, पृच्छा, निर्देश और सूत्रस्पर्श ये तेरह द्वार हैं।३२० क्षुत् पिपासा की विविध उदाहरणों के द्वारा व्याख्या की है। तृतीय अध्ययन में चतुरंगीय शब्द की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की है और अंग का भी नामाङ्ग, स्थापनाङ्ग, द्रव्याङ्ग और भावाङ्ग के रूप में चिन्तन करते हुए द्रव्याङ्ग के गंधाङ्ग, औषधाङ्ग, मद्याङ्ग, आतोद्याङ्ग, शरीराङ्ग और युद्धाङ्ग ये छह प्रकार बताये हैं। गंधाङ्ग के जमदग्नि जटा, हरेणुका, शबर निवसनक (तमालपत्र), सपिनिक, मल्लिकावासित, औसीर, हबेर, भद्रदारु, शतपुष्पा, आदि भेद हैं । इनसे स्नान और विलेपन किया जाता था।
औषधाङ्ग गुटिका में पिण्डदारु, हरिद्रा, माहेन्द्रफल, सुण्ठी, पिप्पली, मरिच, आर्द्रक, बिल्वमूल और पानी ये अष्ट वस्तुएँ मिली हुई होती हैं। इससे कण्डु, तिमिर, अर्ध शिरोरोग, पूर्ण शिरोरोग तात्तीरीक, चातुर्थिक, ज्वर, मूषकदंश, सर्पदंश शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं३२१ । द्राक्षा के सोलह भाग, धातकीपुष्प के चार भाग, एक आढ़क इक्षुरस इनसे मद्याङ्ग बनता है। एक मुकुन्दातुर्य, एक अभिमारदारुक, एक शाल्मली पुष्प, इनके बंध से पुष्पोमिश्र बाल बंध विशेष होता है। सिर, उदर, पीठ, बाहु, उरु, ये शरीराङ्ग हैं। युद्धाङ्ग के भी यान, आवरण, प्रहरण, कुशलत्व, नीति, दक्षत्व, व्यवसाय, शरीर, आरोग्य ये नौ प्रकार बताये गये हैं। भावाङ्ग के श्रुताङ्ग और नोश्रुताङ्ग ये दो प्रकार हैं। श्रुताङ्ग के आचार आदि बारह प्रकार हैं। नोश्रुतांग के चार प्रकार हैं। ये चार प्रकार ही चतुरंगीय के रूप में विश्रुत हैं। मानव भव की दुर्लभता विविध उदाहरणों के द्वारा बताई गई है। मानव भव प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण कठिन है। और उस पर श्रद्धा करना और भी कठिन है। श्रद्धा पर चिन्तन करते हुए जमालि आदि सात निह्नवों का परिचय दिया गया है।३२२
चतुर्थ अध्ययन का नाम असंस्कृत है। प्रमाद और अप्रमाद दोनों पर निक्षेप दृष्टि से विचार किया गया है। जो उत्तरकरण से कृत अर्थात् निर्वतित है, वह संस्कृत है। शेष असंस्कृत हैं। करण का भी नाम आदि छह निक्षेपों से विचार है। द्रव्यकरण के संज्ञाकरण, नोसंज्ञाकरण ये दो प्रकार हैं। संज्ञाकरण के कटकरण, अर्थकरण
और बेलुकरण ये तीन प्रकार हैं। नोसंज्ञाकरण के प्रयोगकरण और विस्रसाकरण ये दो प्रकार हैं। विस्त्रसाकरण के सादिक और अनादिक ये दो भेद हैं। अनादि के धर्म, अधर्म, आकाश ये तीन प्रकार हैं। सादिक के चतुस्पर्श, अचतुस्पर्श ये दो प्रकार हैं। इस प्रकार प्रत्येक के भेद-प्रभेद करके उन सभी की विस्तार से चर्चा करते हैं। इस नियुक्ति में यत्र-तत्र अनेक शिक्षाप्रद कथानक भी दिये हैं। जैसे—गंधार, श्रावक, तोसलीपुत्र, स्थूलभद्र, स्कन्दकपुत्र, ऋषि पाराशर, कालक, करकण्डु आदि प्रत्येकबुद्ध, हरिकेश, मृगापुत्र, आदि। निहवों के जीवन पर भी प्रकाश डाला- गया है। भद्रबाहु के चार शिष्यों का राजगृह के वैभार पर्वत की गुफा में शीत परीषह से और मुनि सवर्णभद्र के मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का उल्लेख भी है। इसमें अनेक उक्तियाँ सूक्तियों के रूप में हैं। उदाहरण के रूप में देखिए
"राई सरिसवमित्ताणि परछिद्दाणि पाससि।
अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतोऽवि न पाससि॥" "तू राई के बराबर दूसरों के दोषों को तो देखता है पर बिल्व जितने बड़े स्वयं के दोषों को देखकर भी
३२१. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १४९-१५०
३२२. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा १५९-१७८.