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________________ - उत्तराध्ययन/८२धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य सदा लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित हैं, जबकि अन्य द्रव्यों की वैसी स्थिति नहीं है। पुद्गल द्रव्य के अणु और स्कन्ध ये दो प्रकार हैं। अणु का अवगाह्य क्षेत्र आकाश का एक प्रदेश है और स्कन्धों की कोई नियत सीमा नहीं है। दोनों प्रकार के पुद्गल अनन्त-अनन्त हैं।३१३ कालद्रव्य द्रव्यों के परिवर्तन में सहकारी होता है। समय, पल, घड़ी, घंटा, मुहूर्त, प्रहर, दिन-रात, सप्ताह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष आदि के भेदों को लेकर वह भी आदि अन्त सहित है। द्रव्य की अपेक्षा अनादिनिधन है। प्रज्ञापना३१४ तथा जीवाजीवाभिगम३१५ सूत्रों में विविध दृष्टियों से जीव और अजीव के भेद-प्रभेद किये गये हैं। हमने यहाँ पर प्रस्तुत आगम में आये हुए विभागों को लेकर ही संक्षेप में चिन्तन किया है। प्रस्तुत अध्ययन के अन्त में समाधिमरण का भी सुन्दर निरूपण हुआ है। इस तरह यह आगम ज्ञान-विज्ञान व अध्यात्मचिन्तन का अक्षय कोश है। व्याख्यासाहित्य उत्तराध्ययननियुक्ति मूल ग्रन्थ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए आचार्यों ने समय-समय पर व्याख्या-साहित्य का निर्माण किया है। जैसे वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए महर्षि यास्क ने निघंटु भाष्य रूप नियुक्ति लिखी जैसे ही आचार्य भद्रबाहु ने जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए प्राकृत भाषा में नियुक्तियों की रचना की। आचार्य भद्रबाहु ने दश नियुक्तियों की रचना की। उनमें उत्तराध्ययन पर भी एक नियुक्ति है। इस नियुक्ति में छह सौ सात गाथाएँ हैं। इसमें अनेक पारिभाषिक शब्दों का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है और अनेक शब्दों के विविध पर्याय भी दिये हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन शब्द की परिभाषा करते हुए उत्तर पद का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, दिशा, ताप-क्षेत्र, प्रज्ञापक, प्रति, काल, संचय, प्रधान, ज्ञान, क्रम, गणना और भाव इन पन्द्रह निक्षेपों से चिन्तन किया है।३१६ उत्तर का अर्थ क्रमोत्तर किया है।३१७ नियुक्तिकार ने अध्ययन पद पर विचार करते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार द्वारों से 'अध्ययन' पर प्रकाश डाला है। प्राग् बद्ध और बध्यमान कर्मों के अभाव से आत्मा को जो अपने स्वभाव में ले जाता है, वह अध्ययन है। दूसरे शब्दों में कहें तो—जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम है या जिससे अधिक प्राप्ति होती है अथवा जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह अध्ययन है।३१८ अनेक भवों से आते हुए अष्ट प्रकार के कर्म-रज का जिससे क्षय होता है, वह भावाध्ययन है। नियुक्ति में पहले पिण्डार्थ और उसके पश्चात् प्रत्येक अध्ययन की विशेष व्याख्या की गई है। प्रथम अध्ययन का नाम विनयश्रुत है। श्रुत का भी नाम आदि चार निक्षेपों से विचार किया है। निह्नव आदि द्रव्यश्रुत हैं और जो श्रुत में उपयुक्त है वह भावश्रुत है। संयोग शब्द की भी विस्तार से व्याख्या की है। संयोग सम्बन्ध संसार का कारण है। उससे जीव कर्म में आबद्ध होता है। उस संयोग से मुक्त होने पर ही वास्तविक आनन्द की उपलब्धि होती है।३१९ द्वितीय अध्ययन में परीषह पर भी निक्षेप दृष्टि से विचार है। द्रव्य निक्षेप आगम और नो-आगम के भेद ३१४. प्रज्ञापना, प्रथम पद ३१६. उत्तराध्ययन, नियुक्ति, गाथा १ ३१८. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५ व ७ ३२०. उत्तराध्ययंन नियुक्ति, गाथा ६५ से ६८ तक ३१५. जीवाजीवाभिगम, प्रतिपत्ति १-९ ३१७. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ३ ३१९. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५२
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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