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________________ -समीक्षात्मक अध्ययन/८१ पुद्गल के सम्बन्ध में अतीव प्राचीन मतों के आधार पर अपनी पद्धति को संस्थापित किया है।३०९ हम यहाँ अधिक विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही यह बताना चाहते हैं कि अजीव द्रव्य का जैसा निरूपण जैन दर्शन में व्यवस्थित रूप से हुआ है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं हुआ। ___अजीव की तरह जीवों के भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। वे विभिन्न आधारों से हुए हैं। एक विभाजन काय को आधार मानकर किया गया है, वह है-स्थावरकाय और त्रसकाय। जिनमें गमन करने की क्षमता का अभाव है, वह स्थावर हैं। जिनमें गमन करने की क्षमता है, वह त्रस हैं। स्थावर जीवों के पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति ये पांच विभाग हैं। तेज और वायु एकेन्द्रिय होने तथा स्थावर नाम कर्म का उदय होने से स्थावर होने पर भी गति-त्रस भी कहलाते हैं। प्रत्येक विभाग के सूक्ष्म और स्थूल ये दो विभाग किये गये हैं। सूक्ष्म जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं और स्थूल जीव लोक के कुछ भागों में होते हैं। स्थूल पृथ्वी के मृदु और कठिन ये दो प्रकार हैं। मृदु पृथ्वी के सात प्रकार हैं तो कठिन पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं। स्थूल जल के पांच प्रकार हैं, स्थूल वनस्पति के प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर ये दो प्रकार हैं। जिनके एक शरीर में एक जीव स्वामी रूप में होता है, वह प्रत्येकशरीर है। जिसके एक शरीर में अनन्त जीव स्वामी रूप में होते हैं, वह साधारणशरीर है। प्रत्येकशरीर वनस्पति के बारह प्रकार हैं तो साधारणशरीर वनस्पति के अनेक प्रकार हैं। त्रस जीवों के इन्द्रियों की अपेक्षा द्वि-इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये चार प्रकार हैं।३१० द्वि-इन्द्रिय आदि अभिप्रायपूर्वक गमन करते हैं। वे आगे भी बढ़ते हैं तथा पीछे भी हटते हैं। संकुचित होते हैं, फैलते हैं, भयभीत होते हैं, दौड़ते हैं। उनमें गति और आगति दोनों होती हैं। वे सभी त्रस हैं। द्वि-इन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव सम्मच्छिमज होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव सम्मूच्छिमज और गर्भज ये दोनों प्रकार के होते हैं। गति की दृष्टि से पंचेन्द्रिय के नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चार प्रकार हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच के जलचर, स्थलचर, खेचर ये तीन प्रकार हैं।३११ जलचर के मत्स्य, कच्छप आदि अनेक प्रकार हैं। स्थलचर की चतुष्पद और परिसर्प ये दो मुख्य जातियाँ हैं ।३१२ चतुष्पद के एक खुर वाले, दो खुर वाले, गोल पैर वाले, नख सहित पैर वाले, ये चार प्रकार हैं। परिसर्प की भुजपरिसर्प, उरपरिसर्प ये दो मुख्य जातियां हैं। खेचर की चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी ये चार मुख्य जातियाँ हैं। ___जीव के संसारी और सिद्ध ये दो प्रकार भी हैं। कर्मयुक्त जीव संसारी और कर्ममुक्त सिद्ध हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तथा सम्यक् तप से जीव कर्म बन्धनों से मुक्त बनता है। सिद्ध जीव पूर्ण मुक्त होते हैं, जब कि संसारी जीव कर्ममुक्त होने के कारण नाना रूप धारण करते रहते हैं। षट् द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही सक्रिय हैं, शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं। जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य कथंचित् विभाव रूप में परिणमते हैं। शेष चारों द्रव्य सदा-सर्वदा स्वाभाविक परिणमन को ही लिये रहते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, ये तीनों द्रव्य संख्या की दृष्टि से एक-एक हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं। जीव द्रव्य अनन्त हैं और पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं। जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में संकोच और विस्तार होता है किन्तु शेष चार द्रव्यों में संकोच और विस्तार नहीं होता। आकाशद्रव्य अखण्ड होने पर भी उसके लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो विभाग किए गए हैं। जिसमें धर्म, अधर्म, काल, जीव, पुद्गल ये पाँच द्रव्य रहते हैं, वह आकाशखण्ड लोकाकाश है। जहाँ इनका अभाव है, सिर्फ आकाश ही है, वह अलोकाकाश है। ३०९, एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, भाग २, पृष्ठ १९९-२०० ३१०. उत्तराध्ययन सूत्र ३६/१०७-१२६ ३११. उत्तराध्ययन ३६/१७१ ३१२. उत्तराध्ययन ३६/१७९ ३१३. आचारांग १/९/११४
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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