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-उत्तराध्ययन/८० वह भिक्षा आदि के कष्ट को भी सहर्ष स्वीकार करता है। इस तरह इस अध्ययन में अनगार से सम्बन्धित विपुल सामग्री दी गई है। जीव-अजीव : एक पर्यवेक्षण
छत्तीसवें अध्ययन में जीव और अजीव के विभागों का वर्णन है। जैन तत्त्वविद्या के अनुसार जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। अन्य जितने भी पदार्थ हैं, वे इनके अवान्तर विभाग हैं। जैन दृष्टि से द्रव्य आत्मकेन्द्रित है। उसके अस्तित्व का स्रोत किसी अन्य केन्द्र से प्रवहमान नहीं है। जितना वास्तविक और स्वतन्त्र चेतन द्रव्य है, उतना ही वास्तविक और स्वतन्त्र अचेतन तत्त्व है। चेतन और अचेतन का विस्तृत रूप ही यह जगत् है। न
चेतन से अचेतन उत्पन्न होता है और न अचेतन से चेतन। इस दृष्टि से जगत् अनादि अनन्त है। यह परिभाषा द्रव्यस्पर्शी नय के आधार पर है। रूपान्तरस्पर्शी नय की दृष्टि से जगत् सादि सान्त भी है। यदि द्रव्यदृष्टि से जीव अनादि-अनन्त हैं तो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि पर्यायों की दृष्टि से वह सादि सान्त भी हैं। उसी प्रकार अजीव द्रव्य भी अनादि अनन्त है। पर उसमें भी प्रतिपल-प्रतिक्षण परिवर्तन होता है। इस तरह अवस्था विशेष की दृष्टि से वह सादि सान्त है। जैन दर्शन का यह स्पष्ट अभिमत है कि असत् से सत् कभी उत्पन्न नहीं होता। इस जगत् में नवीन कुछ भी उत्पन्न नहीं होता। जो द्रव्य जितना वर्तमान में है, वह भविष्य में भी उतना ही रहेगा और अतीत में भी उतना ही था। रूपान्तरण की दृष्टि से ही उत्पाद और विनाश होता है। यह रूपान्तरण की सृष्टि का
मूल है।
अजीव द्रव्य के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय, क्रमशः गति, स्थिति, अवकाश, परिवर्तन, संयोग और वियोगशील तत्त्व पर आधृत हैं। मूर्त और अमूर्त का विभाग शतपथ-ब्राह्मण३०४, बृहदारण्यक ३०५ और विष्णुपुराण३०६ में हुआ है। पर जैन आगम-साहित्य में मूर्त और अमूर्त के स्थान पर रूपी और अरूपी शब्द अधिक मात्रा में व्यवहत हुए हैं। जिस द्रव्य में वर्ण, रस, गंध और स्पर्श हो वह रूपी है और जिस में इनका अभाव हो, वह अरूपी है। पुद्गल द्रव्य को छोड़कर शेष चार द्रव्य अरूपी हैं।३०७ अरूपी द्रव्य जन सामान्य के लिए अगम्य हैं। उनके लिए केवल पुद्गल द्रव्य गम्य है। पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये चार प्रकार हैं। परमाणु पुद्गल का सबसे छोटा विभाग है। इससे छोटा अन्य विभाग नहीं हो सकता। स्कन्ध उनके समुदाय का नाम है। देश और प्रदेश ये दोनों पुद्गल के काल्पनिक विभाग हैं। पुद्गल की वास्तविक इकाई परमाणु है। परमाणु रूपी होने पर भी सूक्ष्म होते हैं। इसलिए वे दृश्य नहीं हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म स्कन्ध भी दृग्गोचर नहीं होते।
आगम-साहित्य में परमाणुओं की चर्चा बहुत विस्तार के साथ की गई है। जैनदर्शन का मन्तव्य हैइस विराट् विश्व में जितना भी सांयोगिक परिवर्तन होता है, वह परमाणुओं के आपसी संयोग-वियोग और जीव-परमाणुओं के संयोग-वियोग से होता है। भारतीय संस्कृति' ग्रन्थ में शिवदत्त ज्ञानी ने लिखा है-"परमाणुवाद वैशेषिक दर्शन की ही विशेषता है। उसका आरम्भ-प्रारम्भ उपनिषदों से होता है। जैन आजीवक आदि के द्वारा भी उसका उल्लेख किया गया है। किन्तु कणाद ने उसे व्यवस्थित रूप दिया।"३०८ पर शिवदत्त ज्ञानी का यह लिखना पूर्ण प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि उपनिषदों का मूल परमाणु नहीं, ब्रह्मविवेचन है। डॉ. हर्मन जैकोबी ने परमाणु सिद्धान्त के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है-'हम जैनों को प्रथम स्थान देते हैं, क्योंकि उन्होंने
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३०४. शतपथब्राह्मण १४/५/३/१ ३०६. विष्णुपुराण ३०८, भारतीय संस्कृति, पृष्ठ २२९
३०५. बृहदारण्यक २/३/१ ३०७. उत्तराध्ययन सूत्र ३६/४