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समीक्षात्मक अध्ययन / ७९
गोम्मटसार में आचार्य नेमिचन्द्र ने योगपरिणाम लेश्या का वर्णन किया है । ३०० आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के कर्मकाण्ड खण्ड में ३०९ कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है। इस परिभाषा के अनुसार दसवें गुणस्थान तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत होने से पूर्व की परिभाषाओं से विरुद्ध नहीं है।
भगवती, प्रज्ञापना और पश्चाद्वर्ती साहित्य में लेश्या पर व्यापक रूप से चिन्तन किया गया है। विस्तारभय से हम उन सभी पहलुओं पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं। पर यह निश्चित है कि जैन मनीषियों ने लेश्या का वर्णन किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं लिया है। उसका यह अपना मौलिक चिन्तन है । ३०३ प्रस्तुत अध्ययन में संक्षेप में कर्मलेश्या के नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य का निरूपण किया है। इन सभी पहलुओं पर श्यामाचार्य ने विस्तार से प्रज्ञापना में लिखा है। व्यक्ति के जीवन का निर्माण उसके अपने विचारों से होता है। वह अपने को जैसा चाहे, बना सकता है। बाह्य जगत् का प्रभाव आन्तरिक जगत् पर होता है और आन्तरिक जगत् का प्रभाव बाह्य जगत् पर होता है। वे एक दूसरे से प्रभावित होते हैं । पुद्गल से जीव प्रभावित होता है और जीव से पुद्गल प्रभावित होता है। दोनों का परस्पर प्रभाव ही प्रभा है, आभा है, कान्ति है, और वही आगम की भाषा में लेश्या है।
अनगार धर्म एक चिन्तन
पैंतीसवें अध्ययन में अनगारमार्गगति का वर्णन है। केवल गृह का परित्याग करने से अनगार नहीं होता, अनगारधर्म एक महान् धर्म है । अत्यन्त सतर्क और सजग रहकर इस धर्म की आराधना और साधना की जाती है केवल बाह्य संग का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। भीतर से असंग होना आवश्यक है। जब तक देह आदि के प्रति रागादि सम्बन्ध रहता है तब तक साधक भीतर से असंग नहीं बन सकता। इसीलिए एक जैनाचार्य ने लिखा है— "कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्त्यते" "जिस हृदय में कामनाओं का वास है, वहाँ संसार है।" अनगार कामनाओं से ऊपर उठा हुआ होता है, इसीलिए वह असंग होता है संग का अर्थ लेप या आसक्ति है। प्रस्तुत अध्ययन में उसके हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म सेवन, इच्छा-काम, लोभ, संसक्त स्थान, गृहनिर्माण, अन्नपाक, धनार्जन की वृत्ति, प्रतिबद्धभिक्षा, स्वादवृत्ति और पूजा की अभिलाषा, ये तेरह प्रकार बताए हैं। इन वृत्तियों से जो असंग होता है वही भ्रमण है श्रमणों के लिए इस अध्ययन में कहा गया है कि मुनि धर्म और शुक्लध्यान का अभ्यास करें साथ ही "सुक्कझाणं झियाएजा" अर्थात् शुक्लध्यान में रमण करे। जब तक अनगार जीए तब तक असंग जीवन जीए और जब उसे यह ज्ञात हो कि मेरी मृत्यु सन्निकट आ चुकी है तो आहार का परित्याग कर अनशनपूर्वक समाधिमरण को वरण करे। जीवन काल में देह के प्रति जो आसक्ति रही हो उसे शनैः शनैः कम करने का अभ्यास करे। देह को साधना का साधन मानकर देह के प्रतिबन्ध से मुक्त हो । यही अनगार का मार्ग है। अनगार दुःख के मूल को नष्ट करता है। वह साधना के पथ पर बढ़ते समय श्मशान, शून्यागार तथा वृक्ष के नीचे भी निवास करता है। जहाँ पर शीत आदि का भयंकर कष्ट उसे सहन करना पड़ता है, वहाँ पर उसे वह कष्ट नहीं मानकर इन्द्रिय-विजय का मार्ग मानता है। अहिंसा धर्म की अनुपालना के लिए
३००. गोम्मटसार, जीवकाण्ड ५३१
३०१. " भावलेश्या कषायोदयरंजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते " । २०२. जोगपती लेस्सा कसायउदयानुरंजिया होदि
तत्ते दोणं कणं बन्धचत्यं समुद्दितं ॥" ३०३. देखिए लेखक का प्रस्तुत ग्रन्थ " चिन्तन के विविध आयाम "
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- सर्वार्थसिद्धि अ. २, सू. २
- जीवकाण्ड, ४८६
लेश्या: एक विश्लेषण' लेख