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________________ उत्तराध्ययन/७८में कहा जाए तो आत्मा और कर्म का सम्बन्ध कराने वाली प्रवृत्ति लेश्या है।२९४ मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद और योग के द्वारा कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से होता है। आचार्य पूज्यपाद ने कषायों के उदय से अनुरंजित मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है।२९५ आचार्य अकलंक ने भी उसी परिभाषा का अनुसरण किया है।२९६ संक्षेप में कहा जाए तो कषाय और योग लेश्या नहीं हैं, पर वे उसके कारण हैं। इसलिए लेश्या का अन्तर्भाव न योग में किया जा सकता है और न कषाय में। कषाय और योग के संयोग से एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है। जैसे-दही और शकर के संयोग से श्रीखण्ड तैयार होता है। कितने ही आचार्यों का अभिमत है कि लेश्या में कषाय की प्रधानता नहीं होती किन्तु योग की प्रधानता होती है। केवलज्ञानी में कषाय का पूर्ण अभाव है पर योग की सत्ता रहती है, इसलिए उसमें शुक्ल लेश्या है। उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्तिसूरि का. मन्तव्य है कि द्रव्यलेश्या का निर्माण कर्मवर्गणा से होता है।२९७ यह द्रव्यलेश्या कर्मरूप है। तथापि यह आठ कर्मों से पृथक् है, जैसे-कार्मण शरीर। यदि लेश्या को कर्मवर्गणा-निष्पन्न माना जाए तो वह कर्म स्थितिविधायक नहीं बन सकती। कर्मलेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है। उसका सम्बन्ध शरीर-रचना सम्बन्धी पुद्गलों से है। उसकी एक प्रकृति शरीरनामकर्म है। शरीरनामकर्म के एक प्रकार के पुद्गलों का समूह कर्मलेश्या है२९८ द्वितीय मान्यता की दृष्टि से लेश्या द्रव्य कर्म निस्यन्द है। निस्यन्द का अर्थ बहते हुए कर्म प्रवाह से है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म की सत्ता है, प्रवाह है पर वहां लेश्या नहीं है। वहाँ पर नये कर्मों का आगमन नहीं होता। कषाय और योग से कर्मबन्धन होता है। कषाय होने पर चारों प्रकार के बन्ध होते हैं। प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध का सम्बन्ध योग से है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का सम्बन्ध कषाय से। केवल योग में स्थिति और अनुभाग बन्ध नहीं होता, जैसे तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरिहन्तों के ऐर्यापथिक बन्ध होता है, किन्तु स्थिति, और अनुभाग बन्ध नहीं होता। जो दो समय का काल बताया गया है वह काल वस्तुतः कर्म पुद्गल ग्रहण करने का और उत्सर्ग का काल है। वह स्थिति और अनुभाग का काल नहीं है। . . तृतीय अभिमतानुसार लेश्याद्रव्य योगवर्गणा के अन्तर्गत स्वतन्त्र द्रव्य है। बिना योग के लेश्या नहीं होती। लेश्या और योग में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। प्रश्न उठता है-क्या लेश्या को योगान्तर्गत मानना चाहिए? या योगनिमित्त द्रव्यकर्म रूप? यदि वह लेश्या द्रव्यकर्म रूप है तो घातीकर्मद्रव्य रूप है अथवा अघातिकर्मद्रव्य रूप है? लेश्या घातीकर्मद्रव्य रूप नहीं है, क्योंकि घातिकर्म नष्ट हो जाने पर भी लेश्या रहती है। यदि लेश्या को अघातिकर्मद्रव्य स्वरूप माने तो चौदहवें गुणस्थान में अघाति कर्म विद्यमान रहते हैं पर वहाँ लेश्या का अभाव है। इसलिए योग-द्रव्य के अन्तर्गत ही द्रव्यस्वरूप लेश्या मानना चाहिए। लेश्या से कषायों में अभिवृद्धि होती है क्योंकि योगद्रव्य में कषाय-अभिवृद्धि करने की शक्ति है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अपना कर्तृत्व दिखाते हैं। जिस व्यक्ति को पित्त-विकार हो उसका क्रोध सहज रूप से बढ़ जाता है। ब्राह्मी वनस्पति का सेवन ज्ञानावरण कर्म को कम करने में सहायक है। मदिरापान करने से ज्ञानावरण का उदय होता है। दही का उपयोग करने से निद्रा में अभिवृद्धि होती है। निद्रा दर्शनावरण कर्म का औदयिक फल है। अत: स्पष्ट है कषायोदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति ही [लेश्या] स्थितिपाक में सहायक होती है।९९ २९४. षट्खण्डागम, धवलावृत्ति ७/२/१, सूत्र ३, पृष्ठ ७ २९५. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि २४६ २९६. तत्त्वार्थराजवार्तिक २/३/८, पृष्ठ १०९ । २९७. "कर्मद्रव्यलेश्या इति सामान्याऽभिधानेऽपि शरीरनामकर्मद्रव्याण्येव कर्मद्रव्यलेश्या। कार्मणशरीरवत् पृथगेव कर्माष्टकात् कर्मवर्गणानिष्पन्नानि कर्मलेश्याद्रव्याणीति तत्त्वं पुनः।"-उत्तरा. अ. ३४ टी., पृष्ठ ६५० २९८. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन-३४ टीका, पृष्ठ ६५० शान्तिसूरि २९९. प्रज्ञापना १७, टीका, पृष्ठ ३३०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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