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________________ -समीक्षात्मक अध्ययन/७७ 'उपशम' है। जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण नहीं हो सके किन्तु उद्वर्तन और अपवर्तन की सम्भावना हो, वह निधत्ति है। जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो, वह 'निकाचित' अवस्था है। कर्म बन्धने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था का नाम 'अबाधाकाल' है। जिन कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है, उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है। कर्मों की इन प्रक्रियाओं का जैसा विश्लेषण जैन साहित्य में हुआ है, वैसा विश्लेषण अन्य साहित्य में नहीं हुआ। योगदर्शन में नियतविपाकी, अनियत विपाकी और आवायगमन के रूप में कर्म की त्रिविध अवस्था का निरूपण है। जो नियत समय पर अपना फल देकर नष्ट हो जाता है, वह 'नियतविपाकी' है। जो कर्म बिना फल दिये ही आत्मा से पृथक् हो जाता है, वह 'अनियतविपाकी' है। एक कर्म का दूसरे में मिल जाना 'आवायगमन' है। जैनदर्शन की कर्म-व्याख्या विलक्षण है। उसकी दृष्टि से कर्म पौद्गलिक हैं। जब जीव शुभ अथवा अशुभ प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है तब वह अपनी प्रवृत्ति से उन पुद्गलों को आकर्षित करता है। वे आकृष्ट पुद्गल आत्मा के सन्निकट अपने विशिष्ट रूप और शक्ति का निर्माण करते हैं। वे 'कर्म' कहलाते हैं। यद्यपि कर्मवर्गणा के पुद्गलों में कोई स्वभाव भिन्नता नहीं होती पर जीव के भिन्न भिन्न अध्यवसायों के कारण कर्मों की प्रकृति और स्थिति में भिन्नता आती है। कर्मों की मूल आठ प्रकृतियाँ हैं। उन प्रकृतियों की अनेक उत्तर प्रकृतियाँ हैं। प्रत्येक कर्म की पृथक्-पृथक् स्थिति हैं। स्थितिकाल पूर्ण होने पर वे कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रस्तुत अध्ययन में कर्मों की प्रकृतियों का और उनके अवान्तर भेदों का निरूपण हुआ है। कर्म के सम्बन्ध में हमने विपाकसूत्र की प्रस्तावना में विस्तार से लिखा है, अतः जिज्ञासु इस सम्बन्ध में उसे देखने का कष्ट करें। लेश्या : एक विश्लेषण चौतीसवें अध्ययन में लेश्याओं का निरूपण है। इसीलिए उनका नाम "लेश्या-अध्ययन" है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में इस अध्ययन का विषय कर्म-लेश्या कहा है।२८८ कर्मबन्ध के हेतु रागादि भावकर्म लेश्या है। जैन दर्शन के कर्मसिद्धान्त को समझने में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्याय है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं। उनमें से एक समूह का नाम 'लेश्या' है। वादीवेताल शान्तिसूरि ने लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा और छाया किया है।२८९ आचार्य शिवार्य ने लिखा है-लेश्या छाया-पुद्गलों से प्रभावित होने वाले जीव के परिणाम हैं।२९० प्राचीन जैन-साहित्य में शरीर के वर्ण, आवणिक आभा, और उनसे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या पर चिन्तन किया है। नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने शरीर का वर्ण और आणविक आभा को द्रव्य-लेश्या माना है। २९१ आचार्य भद्रबाहु का भी यही अभिमत है।२९२ उन्होंने विचार को भाव-लेश्या कहा है। द्रव्य-लेश्या पुद्गल है। इसलिए उसे वैज्ञानिक साधनों के द्वारा भी जाना जा सकता है। द्रव्य-लेश्या के पुद्गलों पर वर्ण का प्रभाव अधिक होता है। जिसके सहयोग से आत्मा कर्म में लिप्त होता है वह 'लेश्या' है।२९३ दिगम्बर आचार्य वीरसेन के शब्दों २८८."अहिगारो कम्मलेसाए" -उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४१ २८९. लेशयति श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या-अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया"। -उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ६५० २९०. मूलाराधना ७/१९०७ २९१. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४९४ (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५३९ २९२. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ५४० २९३. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा ४८९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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