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• परिशिष्ट-१ : कतिपय सूक्तियाँ/६५७करोड़ों भवों में संचित कर्म तपश्चर्या द्वारा क्षीण हो जाते हैं।
असंजमे नियत्तिं संजमे य पवत्तणं॥ ३१/२॥ असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए।
... नाणस्स सव्वस्स पगासणाए,
अन्नाणमोहस्स विवज्जणाए।
रागस्स दोसस्स य संखएणं,
एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥३२/२॥ ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से तथा राम एवं द्वेष के क्षय से आत्मा एकान्त सुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है।
जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागण्यभवं जहा य।
एमेव मोहाययणं खु तण्हा,
मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ॥ ३२/६॥ जिस प्रकार बलाका (बगुली) अंडे से उत्पन्न होती है और अण्डा बलाका से, इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से।
: रागो य दोसो विय कम्मबीयं.
कम्मं च मोहप्पभवं वयंति।
कम्मं च जाईमरणस्स मूलं,
दुक्खं च जाईमरणं वयंति॥ ३२/७॥ राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं, कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है।
दुक्खं हयं जस्स न होड़ मोहो.. मोहो हओ जस्स न होइ तण्हा।
तण्हा हया जस्स न होइ लोहो,
लोहो हओ जस्स न किंचणाई॥३२/८॥ जिसे मोह नहीं होता उसका दु:ख नष्ट हो जाता है। जिसे तृष्णा नहीं होती उसका मोह नष्ट हो जाता है। जिसे लोभ नहीं होता उसकी तुष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन (अपरिग्रही) है उसका लोभ नष्ट हो जाता है।
रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं।
दित्तं च कामा समभिद्दवंति,
दुमं जहा साउफलं व पक्खी॥ ३२/१०॥ ब्रह्मचारी को घी दूध आदि रसों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः उद्दीपक होते हैं। उद्दीप्त पुरुष के निकट काम-भावनाएँ वैसे ही चली आती हैं जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास.पक्षी चले आते हैं।