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-उत्तराध्ययन सूत्रा/६५८
सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स,
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुखं॥ ३२/१९॥ देवताओं सहित समग्र पाणियों को जो भी दुःख प्राप्त हैं वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं।
लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ३२/२९॥ जब आत्मा लोभ से कलुषित होता है तो चोरी करने में प्रवृत्त होता है।
सद्दे अतित्ते य परिग्गहम्मि,
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेिं। शब्द आदि विषयों में अतृप्त और परिग्रह में आसक्त रहने वाला आत्मा कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता।
पदुद्दचित्तो य चिणइ कम्म,
जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ ३२/४६ ।। आत्मा प्रदुष्टचित होकर कर्मों का संचय करता है। वे कर्म विपाक में बहुत दुःखदायी होते
हैं।
न लिप्पई भवमझे वि सन्तो,
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ ३२/४७॥ जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह संसार में रहता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता जैसे कि पुष्करिणी के जल में रहा हुआ पलाश-कमल।
एविंदियत्था य मणस्स अस्था, दुक्खस्स हे मणुयस्स रागिणो।
ते चेव थोवं पिकयाइ दुक्खं,
न वीयरागस्स करेंति किंचि॥३२/१००॥ मन एवं इन्द्रियों के विषय रागी जन को ही दु:ख के हेतु होते हैं, वीतराग को तो वे किंचित् मात्र भी दु:ख नहीं पहुंचा सकते।
न कामभोगा समयं उ-ति, न यावि भोगा विगई उति।
जे तप्पओसी य परिग्गही य,
सो तेसि मोहा विगई उवेइ॥ ३२/१०१॥ कामभोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं में समता के कारण होते हैं और न विकृति के ही। किन्तु जो उनमें द्वेष या राग करता है वह उनमें मोह से राग-द्वेष रूप विकार को प्राप्त होता
है।
न रसट्ठाए |जिजा, वणट्ठाए महामुणी॥ ३५/१७॥ साधु स्वाद के लिए नहीं, किन्तु जीवनयात्रा के निर्वाह के लिए भोजन करे।